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  🌸🌹!:: भगवद्🌹अर्पणम् ::!🌹🌸
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🌹भौतिक भोग एवं दैनिक क्रियाकलाप में बंधा हुआ मन भगवद् ध्यानसाधना में कैसे प्रवत्त हो ?

💐 प्रिय भगवद्जन ....

आपके प्रश्नानुसार ....

🌹हमें ध्यान किस प्रकार करना चाहिए, क्योंकि ध्यान करते समय मन में तरह तरह कि बातें आती है, जो ध्यान को भंग कर देती है ?

प्रियजन .... योगाभ्यास ( ध्यान ) करने में साधक को मन तथा इन्द्रियों के निग्रह के साथ-साथ अन्य कई समस्याओं का सामना करना पडता है। भौतिक जगत् में साधना में तत्पर साधक जीवात्मा मन तथा इन्द्रियों के द्वारा सबसे ज्यादा प्रभावित होता है। वास्तव में शुद्ध जीवात्मा इस भौतिक संसार में इसीलिए फँसा हुआ है क्योंकि मन मिथ्या अहंकार में लगकर प्रकृति के प्रभाव में होते हुए भी प्रकृति के ऊपर प्रभुत्व जताना चाहता है। जो कि असाध्य है। जीव को मन का निग्रह इस प्रकार  करना चाहिए कि वह प्रकृति की तड़क-भड़क एवं भोग-विलास से आप्लावित छटा को क्षणिक एवं अस्थिर जान आकृष्ट न हो और इस तरह बद्ध जीवात्मा स्वयं की रक्षा कर सके । साधक भक्त को इन्द्रियविषयों से आकृष्ट होकर अपने को पतित नहीं करना चाहिए । जो जितना ही इन्द्रियजनित विषयों के प्रति आकृष्ट होता है वह उतना ही इस संसार में फँसता जाता है । अपने को विरत करने का सर्वोत्कृष्ट साधन यही है कि मन को सदैव भगवद्भावना में निरत रखा जाय ।

श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार -

बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः |
अनात्मस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत् ||

जिसने मन को जीत लिया है उसके लिए मन सर्वश्रेष्ठ मित्र है, किन्तु जो ऐसा नहीं कर पाया इसके लिए मन सबसे बड़ा शत्रु बना रहेगा ।

अमृतबिन्दु उपनिषद् में कहा भी गया है –

मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः|
बन्धाय विषयासंगो मुक्त्यै निर्विषयं मनः ||

“मन ही मनुष्य के बन्धन और मोक्ष का भी कारण है। इन्द्रियविषयों में लीन मन भवबन्धन का कारण है और विषयों से विरक्त मन मोक्ष का कारण है।” अतः जो मन निरन्तर भगवद्भावना में लगा रहता है, वही परम मुक्ति का कारण है।

श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण द्वारा ध्यानयोगाभ्यास का साधन इस प्रकार वर्णित है।-

शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मनः |
नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम् ||

तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः |
उपविश्यासने युञ्ज्याद्योगमात्मविश्रुद्धये ||

ध्यानयोगाभ्यास के लिए साधक  एकान्त स्थान में जाकर भूमि पर कुशा बिछा दे और फिर ऊपर से मृगछाल अथवा मुलायम शुद्धवस्त्र बिछा दे । आसन न तो बहुत ऊँचा हो, न बहुत नीचा । यह पवित्र स्थान में स्थित हो । साधक को चाहिए कि इस पर दृढ़तापूर्वक बैठ जाय और मन, इन्द्रियों तथा कर्मों को वश में करते हुए तथा मन को एक बिन्दु पर स्थित करके हृदय को शुद्ध करने के लिए ध्यानयोगाभ्यास करे ।

समं कायशिरोग्रीवं धार्यन्नचलं स्थिरः |
सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्र्चानवलोकयन् ||

प्रशान्तात्मा विगतभीर्ब्रह्मचारिव्रते स्थितः |
मनः संयम्य मच्चितो युक्त आसीत मत्परः ||

ध्यानयोग साधना करने वाले को चाहिए कि वह अपने शरीर, गर्दन तथा सर को सीधा रखे और नाक के अगले सिरे पर दृष्टि लगाए । इस प्रकार वह अविचलित तथा दमित मन से, भयरहित, विषयीजीवन से पूर्णतया मुक्त होकर अपने हृदय में मेरा चिन्तन करे और मुझे हि अपना चरम लक्ष्य बनाए ।

साधना में तत्पर साधक को अपने आहार व नियमादिक का भी ध्यान रखना चाहिये -

नात्यश्र्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नतः|
न चातिस्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन ||

हे अर्जुन! जो अधिक खाता है या बहुत कम खाता है, जो अधिक सोता है अथवा जो पर्याप्त नहीं सोता उसके योगी बनने की कोई सम्भावना नहीं है ।

प्रियजन ... जैसा कि प्रश्न है। इस भौतिक जीव जगत में दैनिक क्रियाकलापो में बद्ध साधक ध्यान करने में "श्रीमद्भगवद्गीता" में उल्लेखित साधनानुसार तत्पर नहीं हो पाता है। अत: इसके लिए हम आपको श्री राधेरानी की कृपा से सरल व सुगम ध्यानसाधना विधी वर्णित करते है।

( शेष आगे के ब्लॉग में )

        ..... ✍🏻 : कृष्णा :: श्री राधा प्रेमी :

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