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🔅धर्म की परिभाषा :

💐 प्रिय भगवद्जन.....

यतो ऽभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिः स धर्मः।
धर्म वह अनुशासित जीवन क्रम है, जिसमें लौकिक उन्नति (अविद्या) तथा आध्यात्मिक परमगति (विद्या) दोनों की प्राप्ति होती है।

धर्म का शाब्दिक अर्थ :धर्म एक संस्कृत शब्द है। धर्म का अर्थ बहुत व्यापक है। ध + र् + म = धर्म। ध देवनागरी वर्णमाला 19वां अक्षर और तवर्ग का चौथा व्यंजन है। भाषाविज्ञान की दृष्टि से यह दन्त्य, स्पर्श, घोष तथा महाप्राण ध्वनि है। संस्कृत (धातु) धा + ड विशेषण- धारण करने वाला, पकड़ने वाला होता है। जो धारण करने योग्य है, वही धर्म है। पृथ्वी समस्त प्राणियों को धारण किए हुए है। जैसे हम किसी नियम को, व्रत को धारण करते हैं इत्यादि। इसका मतलब धर्म का अर्थ है कि जो सबको धारण किए हुए है अर्थात धारयति- इति धर्म:!। अर्थात जो सबको संभाले हुए है। सवाल उठता है कि कौन क्या धारण किए हुए हैं? धारण करना सही भी हो सकता है और गलत भी!
धारण करने योग्य क्या है?
सत्य, अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय, क्षमा आदि।...बहुत से लोग कहते हैं कि धर्म के नियमों का पालन करना ही धर्म को धारण करना है जैसे ईश्वर प्राणिधान, संध्या वंदन, श्रावण माह व्रत, तीर्थ चार धाम, दान, मकर संक्रांति-कुंभ पर्व, पंच यज्ञ, सेवा कार्य, पूजा पाठ, 16 संस्कार और धर्म प्रचार आदि।... लेकिन उक्त सभी कार्य व्यर्थ है तब जबकि आप सत्य के मार्ग पर नहीं हो। सत्य को जानने से अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, शौचादि सभी स्वत: ही जाने जा सकते हैं। अत: सत्य ही धर्म है और धर्म ही सत्य है।...जो संप्रदाय, मजहब, रिलिजन और विश्वास सत्य को छोड़कर किसी अन्य रास्ते पर चल रही है वह सभी अधर्म के ही मार्ग हैं। इसीलिए हित्दुत्व में कहा गया है "सत्यंम शिवम सुंदरम्"।

मनु ने धर्म के दस लक्षण बताए हैं:-
धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो, दशकं धर्मलक्षणम् ॥
(धृति (धैर्य), क्षमा (दूसरों के द्वारा किए गए अपराध को माफ कर देना, क्षमाशील होना), दम (अपनी वासनाओं पर नियन्त्रण करना), अस्तेय (चोरी न करना), शौच (आंतरिक और बहारी शुचिता), इन्द्रिय निग्रहः (इन्द्रियों को वश में रखना), धी: अर्थात् बुद्धि (बुद्धिमत्ता का प्रयोग), विद्या (अधिक से अधिक ज्ञान की पिपासा), सत्य (मन, वचन और कर्म से सत्य का पालन) और अक्रोध (क्रोध न करना); ये दस धर्म के लक्षण हैं।)

प्रियजन...इसी संदर्भ में अगर हम महाभारत में देखें तो यहां हमें धर्म की व्याख्या इस प्रकार मिलती है।:-

उदार मेव विद्वांसो धर्मं प्राहुर्मनीषिण:।
मनीषी जन उदारता को ही धर्म कहते है।

आरम्भो न्याययुक्तो य: स हि धर्म इति स्मृत:।
जो आरम्भ (उपक्रम या योजना) न्यायसंगत हो वही धर्म कहा गया है।

स्वकर्मनिरतो यस्तु धर्म: स इति निश्चय:।
अपने कर्म में लगे रहना निश्चय ही धर्म है।

नासौ धर्मों यत्र न सत्यमस्ति।
जिसमें सत्य नहीं वह धर्म, धर्म ही नहीं है।

यस्मिन् यथा वर्तते यो मनुष्यस्तस्मिंस्तथा वर्तितव्यं सधर्म:।
जो जैसा व्यवहार करे ऋजु भी उससे वैसा ही व्यवहार करे, यह धर्म है।

धारणाद् धर्ममित्याहुर्धर्मो धारयते प्रजा:।
धर्म ही प्रजा को धारण करता है इसलिये ही उसे धर्म कहते है।

दण्डं धर्मं विदुर्बुधा:।
ज्ञानी जन दण्ड को धर्म मानते है।

अद्रोहेणैव भूतानां यो धर्म: स सतां मत:।
जीवों से द्रोह किये बिना जो धर्म हो संतों के मत में वही श्रेष्ठ धर्म है।

य: स्यात् प्रभवसंयुक्त: स धर्म इति निश्चय:।
जिसमें कल्याण करने का सामर्थ्य है वही धर्म है।

धर्मस्याख्या महाराज व्यवहार इतीष्यते।
महाराज! धर्म का ही नाम व्यवहार है।

मानसं सर्वभूतानां धर्ममाहुर्मनीषिण:।
मनीषी व्यक्तियों का कथन है कि समस्त प्राणियों के मन में धर्म है।

बुद्धिसंजननो धर्म आचारश्च सतां सदा।
धर्म और सज्जनों का आचार व्यवहार दोनों बुद्धि से ही प्रकट होते हैं।

सदाचार: स्मृतिर्वेदास्त्रिविधं धर्मलक्षणम्।
वेद, स्मृति और सदाचार ये तीन धर्म के लक्षण हैं।

अनेकांत बहुद्वारं धर्ममाहुर्मनीषिण:।
मनीषी कहते हैं धर्म के साधन और फल अनेक हैं।

धर्मं हि श्रेय इत्याहु:।
धर्म के ही कल्याण कहते हैं या कल्याण को ही धर्म कहते हैं।

दरअसल,धर्म मूल स्वभाव की खोज है। धर्म एक रहस्य है, संवेदना है, संवाद है और आत्मा की खोज है। धर्म स्वयं की खोज का नाम है। जब भी हम धर्म कहते हैं तो यह ध्वनीत होता है कि कुछ है जिसे जानना जरूरी है। कोई शक्ति है या कोई रहस्य है। धर्म है अनंत और अज्ञात में छलांग लगाना। धर्म है जन्म, मृत्यु और जीवन को जानना।

हिन्दू संप्रदाय में धर्म को जीवन को धारण करने, समझने और परिष्कृत करने की विधि बताया गया है। धर्म को परिभाषित करना उतना ही कठिन है जितना ईश्वर को। दुनिया के तमाम विचारकों ने -जिन्होंने धर्म पर विचार किया है, अलग-अलग परिभाषाएं दी हैं।इस नजरिए से वैदिक ऋषियों का विचार सबसे ज्यादा उपयुक्त लगता है कि सृष्टि और स्वयं के हित और विकास में किए जाने वाले सभी कर्म धर्म हैं।

         ...... ✍🏻 : कृष्णा :: श्री राधा प्रेमी :

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 🌹۞☀∥ राधेकृष्ण: शरणम् ∥☀۞🌹
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          🌹एक बार प्रेम से बोलिए ..
          🌸 जय जय " श्री राधे ".....
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