🚩🔱 ❄: «ॐ»«ॐ»«ॐ» :❄ 🔱🚩
※══❖═══▩ஜ ۩۞۩ ஜ▩═══❖══※
🌹🌟 राधे नाम संग हरि बोल 🌟🌹
※❖ॐ∥▩∥श्री∥ஜ ۩۞۩ ஜ∥श्री∥▩∥ॐ❖※
🌹🌹✨ भगवद् 🙏🏻 अर्पण ✨🌹🌹
प्रियभगवद्जन .....
“जीव के शरीर के भीतर आत्मरूप मे वास करने वाले भगवान् ब्रह्माण्ड के समस्त जीवों के नियन्ता हैं। यह शरीर नौ द्वारों (दो आँखे, दो नथुने, दो कान, एक मुँह, गुदा और उपस्थ) से युक्त है | बद्धावस्था में जीव अपने आपको शरीर मानता है, किन्तु जब वह अपनी पहचान अपने अन्तर के भगवान् से करता है तो वह शरीर में रहते हुए भी भगवान् की भाँति मुक्त हो जाता है |”
नवद्वारे पुरे देहि हंसो लेलायते बहिः |
वशी सर्वस्य लोकस्य स्थावरस्य चरस्य च ||
(श्र्वेताश्र्वतर उपनिषद् ३.१८)
यदि कोई आत्म-साक्षात्कार के पथ पर अग्रसर होना चाहता है तो उसे भौतिक इन्द्रियों के वेग को रोकने का प्रयत्न करना चाहिए । ये वेग हैं – वाणीवेग, क्रोधवेग, मनोवेग, उदरवेग, उपस्थवेद तथा जिह्वावेग ।
भौतिक इच्छाएँ पूर्ण न होने पर क्रोध उत्पन्न होता है, क्रोध में भरे व्यक्ति का मन खिन्न हो उठता है। तब वाणी , मन, नेत्र तथा वक्षस्थलादि उत्तेजित होते हैं। और ये स्थिति दुसरे के साथ साथ व्यक्ति के स्वयं के लिए भी कष्टप्रद होती है। अतः बुद्धिमान व्यक्ति को समय रहते इस शरीर का परित्याग करने के पूर्व ही इन समस्त शारीरिक वेगों को वश में करने का अभ्यास करना चाहिए । जो ऐसा कर सकता है वह स्वरुपसिद्ध प्राप्ति का अधिकारी माना जाता है और आत्म-साक्षात्कार की अवस्था में वह सुखी रहता है।
प्रियजन .... हम स्वरूपसिद्ध व्यक्ति के लक्षण संक्षेप में जानते है। स्वरूपसिद्ध व्यक्ति में शरीर और आत्मतत्त्व के तादात्म्य का भ्रम नहीं रहता । वह यह भलीभाँति जानता है। कि मैं यह शरीर नहीं हूँ, अपितु भगवान् का एक अंश हूँ। अतः कुछ प्राप्त होने पर न तो उसे प्रसन्नता होती है। और न शरीर की कुछ हानि होने पर शोक होता है। मन की यह स्थिरता स्थिरबुद्धि या आत्मबुद्धि भी कहलाती है। अतः वह न तो स्थूल शरीर को आत्मा मानने की भूल करके मोहग्रस्त होता है और न शरीर को स्थायी मानकर आत्मा के अस्तित्व को ठुकराता है। इस ज्ञान के कारण वह परमसत्य अर्थात् ब्रह्म, परमात्मा तथा भगवान् के ज्ञान को भलीभाँति जान लेता है। इस प्रकार वह अपने स्वरूप को जानता है। और परब्रह्म से हर बात में तदाकार होने का कभी यत्न नहीं करता । इसे ब्रह्म-साक्षात्कार या आत्म-साक्षात्कार कहते हैं ।
श्रीमद्भगवद्गीता में इसकी पुष्टि हुई है। ...
नैव किञ्चित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित् |
पश्यञ्शृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्र्नन्गच्छन्स्वपन्श्र्वसन् || ५/८ ||
प्रलपन्विसृजन्गृह्रन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि |
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन् || ५/९ ||
दिव्य भगवद्मयीभावना से युक्त पुरुष देखते, सुनते, स्पर्श करते, सूँघते, खाते, चलते-फिरते, सोते तथा श्र्वास लेते हुए भी अपने अन्तर में सदैव यही जानता रहता है कि वास्तव में वह कुछ भी नहीं करता । जो भी कार्य मेरे द्वारा सम्पन्न होता वह सब भगवान द्वारा प्रेरित भावना से ही सम्पन्न होता है। भगवद्भावनामयी व्यक्ति चलते , बोलते, त्यागते, ग्रहण करते या आँखे खोलते-बन्द करते हुए अपने हर एक क्रियाकलाप में यह जानता रहता है कि भौतिक इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों में प्रवृत्त है और वह इन सबसे पृथक् है। तदन्तर अपनी इस भगवद्मयीभावना से वह भगवान के दिव्यप्रेम व भक्ति को प्राप्त होता है।
....✍🏻 : कृष्णा :: श्री राधा प्रेमी :
※❖ॐ∥▩∥श्री∥ஜ ۩۞۩ ஜ∥श्री∥▩∥ॐ❖※
🌹۞☀∥ राधेकृष्ण: शरणम् ∥☀۞🌹
※❖ॐ∥▩∥श्री∥ஜ ۩۞۩ ஜ∥श्री∥▩∥ॐ❖※
🌹: कृष्णा : श्री राधा प्रेमी : 🌹
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🌹एक बार प्रेम से बोलिए ...
🌹जय जय श्री राधे ...........
🌹प्यारी श्री " राधे .. "🌹💐
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🌹🌹✨ भगवद् 🙏🏻 अर्पण ✨🌹🌹
प्रियभगवद्जन .....
“जीव के शरीर के भीतर आत्मरूप मे वास करने वाले भगवान् ब्रह्माण्ड के समस्त जीवों के नियन्ता हैं। यह शरीर नौ द्वारों (दो आँखे, दो नथुने, दो कान, एक मुँह, गुदा और उपस्थ) से युक्त है | बद्धावस्था में जीव अपने आपको शरीर मानता है, किन्तु जब वह अपनी पहचान अपने अन्तर के भगवान् से करता है तो वह शरीर में रहते हुए भी भगवान् की भाँति मुक्त हो जाता है |”
नवद्वारे पुरे देहि हंसो लेलायते बहिः |
वशी सर्वस्य लोकस्य स्थावरस्य चरस्य च ||
(श्र्वेताश्र्वतर उपनिषद् ३.१८)
यदि कोई आत्म-साक्षात्कार के पथ पर अग्रसर होना चाहता है तो उसे भौतिक इन्द्रियों के वेग को रोकने का प्रयत्न करना चाहिए । ये वेग हैं – वाणीवेग, क्रोधवेग, मनोवेग, उदरवेग, उपस्थवेद तथा जिह्वावेग ।
भौतिक इच्छाएँ पूर्ण न होने पर क्रोध उत्पन्न होता है, क्रोध में भरे व्यक्ति का मन खिन्न हो उठता है। तब वाणी , मन, नेत्र तथा वक्षस्थलादि उत्तेजित होते हैं। और ये स्थिति दुसरे के साथ साथ व्यक्ति के स्वयं के लिए भी कष्टप्रद होती है। अतः बुद्धिमान व्यक्ति को समय रहते इस शरीर का परित्याग करने के पूर्व ही इन समस्त शारीरिक वेगों को वश में करने का अभ्यास करना चाहिए । जो ऐसा कर सकता है वह स्वरुपसिद्ध प्राप्ति का अधिकारी माना जाता है और आत्म-साक्षात्कार की अवस्था में वह सुखी रहता है।
प्रियजन .... हम स्वरूपसिद्ध व्यक्ति के लक्षण संक्षेप में जानते है। स्वरूपसिद्ध व्यक्ति में शरीर और आत्मतत्त्व के तादात्म्य का भ्रम नहीं रहता । वह यह भलीभाँति जानता है। कि मैं यह शरीर नहीं हूँ, अपितु भगवान् का एक अंश हूँ। अतः कुछ प्राप्त होने पर न तो उसे प्रसन्नता होती है। और न शरीर की कुछ हानि होने पर शोक होता है। मन की यह स्थिरता स्थिरबुद्धि या आत्मबुद्धि भी कहलाती है। अतः वह न तो स्थूल शरीर को आत्मा मानने की भूल करके मोहग्रस्त होता है और न शरीर को स्थायी मानकर आत्मा के अस्तित्व को ठुकराता है। इस ज्ञान के कारण वह परमसत्य अर्थात् ब्रह्म, परमात्मा तथा भगवान् के ज्ञान को भलीभाँति जान लेता है। इस प्रकार वह अपने स्वरूप को जानता है। और परब्रह्म से हर बात में तदाकार होने का कभी यत्न नहीं करता । इसे ब्रह्म-साक्षात्कार या आत्म-साक्षात्कार कहते हैं ।
श्रीमद्भगवद्गीता में इसकी पुष्टि हुई है। ...
नैव किञ्चित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित् |
पश्यञ्शृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्र्नन्गच्छन्स्वपन्श्र्वसन् || ५/८ ||
प्रलपन्विसृजन्गृह्रन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि |
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन् || ५/९ ||
दिव्य भगवद्मयीभावना से युक्त पुरुष देखते, सुनते, स्पर्श करते, सूँघते, खाते, चलते-फिरते, सोते तथा श्र्वास लेते हुए भी अपने अन्तर में सदैव यही जानता रहता है कि वास्तव में वह कुछ भी नहीं करता । जो भी कार्य मेरे द्वारा सम्पन्न होता वह सब भगवान द्वारा प्रेरित भावना से ही सम्पन्न होता है। भगवद्भावनामयी व्यक्ति चलते , बोलते, त्यागते, ग्रहण करते या आँखे खोलते-बन्द करते हुए अपने हर एक क्रियाकलाप में यह जानता रहता है कि भौतिक इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों में प्रवृत्त है और वह इन सबसे पृथक् है। तदन्तर अपनी इस भगवद्मयीभावना से वह भगवान के दिव्यप्रेम व भक्ति को प्राप्त होता है।
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🌹जय जय श्री राधे ...........
🌹प्यारी श्री " राधे .. "🌹💐
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