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🚩🔱 ❄ «ॐ»«ॐ»«ॐ» ❄ 🔱🚩   🌸🌹!:: भगवद्🌹अर्पणम् ::!🌹🌸 ※══❖═══▩ஜ ۩۞۩ ஜ▩═══❖══※   🌹🌟 राधे नाम संग हरि बोल 🌟🌹  ※❖ॐ∥▩∥श्री∥ஜ ۩۞۩ ஜ∥श्री∥▩∥ॐ❖※ 🌹 "स्व:सत्" का भाव "असत् अहं" का अभाव : एक बहुत सुगम बात है। उसे विचारपूर्वक गहरी रीतिसे समझ लें तो तत्काल तत्त्वमें स्थित हो जायँ। जैसे राजाका राज्यभरसे सम्बन्ध होता है, वैसे ही परमात्मतत्त्वका मात्र वस्तु, व्यक्ति, क्रिया आदिके साथ सम्बन्ध है। राजाका सम्बन्ध तो मान्यतासे है, पर परमात्माका सम्बन्ध वास्तविक है। हम परमात्माको भले ही भूल जायँ, पर उसका सम्बन्ध कभी नहीं छूटता। आप चाहे युग-युगान्तरतक भूले रहें तो भी उसका सम्बन्ध सबसे एक समान है। आपकी स्थिति जाग्रत्, स्वप्न या सुषुप्ति किसी अवस्थामें हो, आप योग्य हों या अयोग्य, विद्वान् हों या अनपढ़, धनी हों या निर्धन, परमात्माका सम्बन्ध सब स्थितियोंमें एक समान है। इसे समझनेके लिये युक्ति बताता हूँ। आप मानते हैं कि बालकपनमें था, अभी मैं हूँ और आगे वृद्धावस्थामें भी मैं रहूँगा। बालकपन, जवानी और वृद्धावस्था—तीनोंका भेद होनेसे ‘था’, ‘हूँ’ और ‘रहूँगा’ ये तीन भेद हुए, पर
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🚩🔱 ❄ «ॐ»«ॐ»«ॐ» ❄ 🔱🚩   🌸🌹!:: भगवद्🌹अर्पणम् ::!🌹🌸 ※══❖═══▩ஜ ۩۞۩ ஜ▩═══❖══※   🌹🌟 राधे नाम संग हरि बोल 🌟🌹  ※❖ॐ∥▩∥श्री∥ஜ ۩۞۩ ஜ∥श्री∥▩∥ॐ❖※ 🌹भगवद्दर्शनकी उत्कण्ठा : ( गत ब्लॉग से आगे ) भगवत्प्रेमकी अवस्था ही अनोखी होती है। भगवान्‌का प्रसंग चल रहा है, उनकी मधुर चर्चा चल रही है, उस समय यदि स्वयं भगवान् भी आ जायँ तो प्रसंग चलाता रहे, भंग न होने दे। प्रियतम-चर्चामें एक अद्‌भुत मिठास होती है, जिसकी चाट लग जानेपर और कुछ सुहाता ही नहीं। प्रीतिकी रीति अनोखी है। प्रभुकी प्रीतिका रस जिसने पा लिया उसे और पाना ही क्या रहा? प्रभु तो केवल प्रेम देखते हैं। स्वयं प्रभुसे बढ़कर प्रभुका प्रेम है। श्रद्धा-भक्तिपूर्वक प्रभुके गुण, प्रभाव, तत्त्व तथा रहस्यसहित ध्यानमें तन्मय होकर प्रभुके प्रेमामृतका पान करना ही प्रभुकी प्रीतिका आस्वादन करना है या हरिके रसमें डूबना है। दो प्रेमियोंमें यदि न बोलनेकी शर्त लग जाय तो अधिक प्रेमवाला ही हारेगा। पति-पत्नीमें यदि न बोलनेका हठ हो जाय तो वही हारेगा जिसमें अधिक स्नेह होगा। इसी प्रकार जब भक्त और भगवान्‌में होड़ होती है तो भगवान्‌को ही हारना पड़ता है,
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🚩🔱 ❄ «ॐ»«ॐ»«ॐ» ❄ 🔱🚩   🌸🌹!:: भगवद्🌹अर्पणम् ::!🌹🌸 ※══❖═══▩ஜ ۩۞۩ ஜ▩═══❖══※   🌹🌟 राधे नाम संग हरि बोल 🌟🌹  ※❖ॐ∥▩∥श्री∥ஜ ۩۞۩ ஜ∥श्री∥▩∥ॐ❖※ 🌹भगवद्दर्शनकी उत्कण्ठा : ( गत ब्लॉग से आगे ) भगवान्‌के दर्शनमें जो विलम्ब हो रहा है उसका एकमात्र कारण दृढ़ श्रद्धा-विश्वासका अभाव ही है। चाहे जिस प्रकार निश्चय हो जाय, निश्चय हो जानेपर भगवान् न आवे ऐसा हो नहीं सकता। वे अपने भक्तोंको निराश नहीं करते, यही उनका बाना है। यह दूसरी बात है कि बीच-बीचमें हमारे मार्गमें ऐसे विघ्न आ खड़े हों जिनके कारण हमारा मन विचलित-सा हो जाय। परन्तु यदि साधक उस समय सँभलकर प्रभुको दृढ़तापूर्वक पकड़े रहे और विघ्नोंसे प्रह्लादकी भाँति न घबड़ाये तो उसका काम अवश्य ही बन जाता है। प्रभु तो हमारी श्रद्धाको पक्की करनेके लिये ही कभी निष्ठुर और कभी कोमल व्यवहार और व्यवस्था किया करते हैं। वास्तविक श्रद्धा इतनी बलवती होती है कि भगवान्‌को बाध्य होकर उस श्रद्धाको फलीभूत करनेके लिये प्रकट होना पड़ता है। पारस यदि पारस है और लोहा यदि लोहा है तो स्पर्श होनेपर सोना होगा ही। उसी प्रकार श्रद्धावान्‌को भगवान्‌की प्राप्ति होती है
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🚩🔱 ❄ «ॐ»«ॐ»«ॐ» ❄ 🔱🚩   🌸🌹!:: भगवद्🌹अर्पणम् ::!🌹🌸 ※══❖═══▩ஜ ۩۞۩ ஜ▩═══❖══※   🌹🌟 राधे नाम संग हरि बोल 🌟🌹  ※❖ॐ∥▩∥श्री∥ஜ ۩۞۩ ஜ∥श्री∥▩∥ॐ❖※ 🌹भगवद्दर्शनकी उत्कण्ठा : बहुत-से लोग कहा करते हैं कि यथाशक्ति चेष्टा करनेपर भी भगवान् हमें दर्शन नहीं देते। वे लोग भगवान्‌को ‘निष्ठुर, कठोर’ आदि शब्दोंसे सम्बोधित किया करते हैं तथा ऐसा मान बैठे है कि उनका हृदय वज्रका-सा है और वे कभी पिघलते ही नहीं। उन्हें क्या पड़ी है कि वे हमारी सुध लें, हमें दर्शन दें और हमें अपनायें –  ऐसी ही शिकायत बहुत-से लोगोंकी रहती है। परन्तु बात है बिलकुल उलटी। हमारे ऊपर प्रभुकी अपार दया है। वे देखते रहते हैं कि जरा भी गुंजाइश हो तो मैं प्रकट होऊँ, थोड़ा भी मौका मिले तो भक्तको दर्शन दूँ। साधनाके पथमें वे पद-पदपर हमारी सहायता करते रहते हैं। लोकमें भी यह देखा जाता है कि जहाँ विशेष लगाव होता है, जिस पुरुषका हमारे प्रति विशेष आकर्षण होता है उनके पास और सब काम छोड़कर भी हमें जाना पड़ता है। जहाँ नहीं जाना होता वहाँ प्राय: यही मानना चाहिये कि प्रेमकी कमी है, जब हम साधारण मनुष्योंकी भी यह हालत है तब भगवान्, जो प्रे
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🚩🔱 ❄ «ॐ»«ॐ»«ॐ» ❄ 🔱🚩   🌸🌹!:: भगवद्🌹अर्पणम् ::!🌹🌸 ※══❖═══▩ஜ ۩۞۩ ஜ▩═══❖══※   🌹🌟 राधे नाम संग हरि बोल 🌟🌹  ※❖ॐ∥▩∥श्री∥ஜ ۩۞۩ ஜ∥श्री∥▩∥ॐ❖※ 🌹भौतिक भोग एवं दैनिक क्रियाकलाप में बंधा हुआ मन भगवद् ध्यानसाधना में केसे प्रवत्त हो ? ( गत ब्लॉग से आगे ) 💐 प्रिय भगवद्जन ..... ध्यानयोगाभ्यास में समाधि की सर्वोच्च अवस्था भगवद्भावनामृत है। केवल इस ज्ञान से कि भगवान प्रत्येक जन के हृदय में परमात्मा रूप में उपस्थित हैं ध्यानस्थ योगी निर्दोष हो जाता है। वेदों में (गोपालतापनी उपनिषद् १.२१) भगवान् की इस अचिन्त्य शक्ति की पुष्टि इस प्रकार होती है –  एकोऽपि सन्बहुधा योऽवभाति– “यद्यपि भगवान् एक हैं, किन्तु वह जितने सारे हृदय हैं उनमें उपस्थित रहते है।” इसी प्रकार स्मृति शास्त्र का कथन है।– एक एव परो विष्णुः सर्वव्यापी न संशयः | ऐश्र्वर्याद् रुपमेकं च सूर्यवत् बहुधेयते || “विष्णु एक हैं फिर भी वे सर्वव्यापी हैं । एक रूप होते हुए भी वे अपनी अचिन्त्य शक्ति से सर्वत्र उपस्थित रहते हैं, जिस प्रकार सूर्य एक ही समय अनेक स्थानों में दिखता है।” अत: ध्यानयोग साधना में सदैव इस बात का स्
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🚩🔱 ❄ «ॐ»«ॐ»«ॐ» ❄ 🔱🚩   🌸🌹!:: भगवद्🌹अर्पणम् ::!🌹🌸 ※══❖═══▩ஜ ۩۞۩ ஜ▩═══❖══※   🌹🌟 राधे नाम संग हरि बोल 🌟🌹  ※❖ॐ∥▩∥श्री∥ஜ ۩۞۩ ஜ∥श्री∥▩∥ॐ❖※ 🌹भौतिक भोग एवं दैनिक क्रियाकलाप में बंधा हुआ मन भगवद् ध्यानसाधना में कैसे प्रवत्त हो ? 💐 प्रिय भगवद्जन .... आपके प्रश्नानुसार .... 🌹हमें ध्यान किस प्रकार करना चाहिए, क्योंकि ध्यान करते समय मन में तरह तरह कि बातें आती है, जो ध्यान को भंग कर देती है ? प्रियजन .... योगाभ्यास ( ध्यान ) करने में साधक को मन तथा इन्द्रियों के निग्रह के साथ-साथ अन्य कई समस्याओं का सामना करना पडता है। भौतिक जगत् में साधना में तत्पर साधक जीवात्मा मन तथा इन्द्रियों के द्वारा सबसे ज्यादा प्रभावित होता है। वास्तव में शुद्ध जीवात्मा इस भौतिक संसार में इसीलिए फँसा हुआ है क्योंकि मन मिथ्या अहंकार में लगकर प्रकृति के प्रभाव में होते हुए भी प्रकृति के ऊपर प्रभुत्व जताना चाहता है। जो कि असाध्य है। जीव को मन का निग्रह इस प्रकार  करना चाहिए कि वह प्रकृति की तड़क-भड़क एवं भोग-विलास से आप्लावित छटा को क्षणिक एवं अस्थिर जान आकृष्ट न हो और इस तरह बद्ध जीवात्मा स्व
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🚩🔱 ❄ «ॐ»«ॐ»«ॐ» ❄ 🔱🚩   🌸🌹!:: भगवद्🌹अर्पणम् ::!🌹🌸 ※══❖═══▩ஜ ۩۞۩ ஜ▩═══❖══※   🌹🌟 राधे नाम संग हरि बोल 🌟🌹  ※❖ॐ∥▩∥श्री∥ஜ ۩۞۩ ஜ∥श्री∥▩∥ॐ❖※ 🌹भगवत्प्राप्तिके चार साधनोंकी सुगमताका रहस्य : ( गत ब्लॉग से आगे ) परमेश्वर और उसकी प्राप्तिके साधनोंमें श्रद्धा और प्रेमकी कमी होनेके कारण ही साधन करने में साधकों को उत्साह नहीं होता। आरामतलब स्वभावके कारण आलस्य और अकर्मण्यता बढ़ जाती है इसीसे उन्हें परम शान्ति और परमानन्दकी प्राप्ति नहीं होती। इसलिये श्रीमद्भागवतमें बतलायी हुई नवधा भक्तिका तत्त्व-रहस्य महापुरुषोंसे समझकर श्रद्धा और प्रेमपूर्वक तत्परताके साथ भक्तिका साधन करना चाहिये। भगवान्के रासका विषय तो अत्यन्त ही गहन है। भगवान् और भगवान्की क्रीडा दिव्य, अलौकिक, पवित्र, प्रेममय और मधुर है। जो माधुर्यरसके रहस्यको जानता है, वही उससे लाभ उठा सकता है। भगवान् श्रीकृष्ण और गोपियोंकी जो असली रासक्रीडा थी, उसको तो जाननेवाले ही संसारमें बहुत कम हैं। उनकी वह क्रीडा अति पवित्र, अलौकिक और अमृतमय थी। वर्तमानमें होनेवाले रासमें तो बहुत-सी कल्पित बातें भी आ जाती हैं तथा अधिकांशमें रास कर
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🚩🔱 ❄ «ॐ»«ॐ»«ॐ» ❄ 🔱🚩   🌸🌹!:: भगवद्🌹अर्पणम् ::!🌹🌸 ※══❖═══▩ஜ ۩۞۩ ஜ▩═══❖══※   🌹🌟 राधे नाम संग हरि बोल 🌟🌹  ※❖ॐ∥▩∥श्री∥ஜ ۩۞۩ ஜ∥श्री∥▩∥ॐ❖※ 🌹भगवत्प्राप्तिके चार साधनोंकी सुगमताका रहस्य : ज्ञानयोग, ध्यानयोग, भक्तियोग और कर्मयोग आदि साधन करनेके विषयमें उपनिषद्, ब्रह्मसूत्र, योगदर्शन, श्रीमद्भागवत और गीता आदि शास्त्रोंको देखनेपर अधिकांश मनुष्योंको चित्तमें अनेक प्रकारकी शङ्काएँ उठा करती हैं और किसी-किसीके चित्तमें तो ङ्क्षककर्तव्यविमूढ़ताका-सा भाव आ जाता है। उपनिषद् और ब्रह्मसूत्रको देखकर जब वेदान्तके सिद्धान्तके अनुसार साधक जगत्को स्वप्नवत् समझता हुआ सम्पूर्ण सङ्कल्पोंका यानी स्फुरणामात्रका और जिन वृत्तियोंसे संसारके चित्रोंका अभाव किया, उनका भी त्याग करके केवल एक सच्चिदानन्दघन परमात्माके स्वरूपमें अभेदरूपसे नित्य-निरन्तर स्थित रहनेका अभ्यास करता है, तब आलस्यके कारण चित्तकी वृत्तियाँ मायामें विलीन हो जाती हैं और साधक कृतकार्य नहीं होने पाता। ऐसी अवस्थामें विचारवान् पुरुष भी चिन्तातुर-सा हो जाता है। बहुत-से जो इस तत्त्वको नहीं जानते हैं वे तो इस लय-अवस्थाको ही समाधि सम
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🚩🔱 ❄ «ॐ»«ॐ»«ॐ» ❄ 🔱🚩   🌸🌹!:: भगवद्🌹अर्पणम् ::!🌹🌸 ※══❖═══▩ஜ ۩۞۩ ஜ▩═══❖══※   🌹🌟 राधे नाम संग हरि बोल 🌟🌹  ※❖ॐ∥▩∥श्री∥ஜ ۩۞۩ ஜ∥श्री∥▩∥ॐ❖※ 🌹 मैं शरीर नहीं हूँ 🌹 अपनेको शरीर माननेसे ही जन्म-मरण, दु:ख, संताप, चिन्ता आदि सभी आफतें आती हैं। शरीर अपना स्वरूप है नहीं, यह प्रत्यक्ष है। बचपनमें जैसा शरीर था, वैसा अब नहीं है; अब इतना बदल गया कि पहचान नहीं होती, परंतु ‘मैं वही हूँ’—इसमें सन्देहकी कहीं गुंजाइश भी नहीं है। तो कम-से-कम यह विचार करें कि शरीर मैं नहीं हूँ। मैं न स्थूल शरीर हूँ, न सूक्ष्म शरीर हूँ और न कारण शरीर हूँ। स्थूल शरीरकी स्थूल संसारके साथ एकता है— छिति जल पावक गगन समीरा।  पंच रचित अति अधम सरीरा (मानस ४। ११। २) अब वह कौन-सा शरीर है, जो इन पाँचोंसे रहित है ? संसारके साथ शरीरकी बिलकुल अभिन्नता है। संसार ‘यह’ नामसे कहा जाता है, फिर उसका एक छोटा-सा अंश ‘मैं’ कैसे हो गया ? ऐसे ही सूक्ष्म शरीरकी सूक्ष्म संसारके साथ एकता है। पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच प्राण, मन, बुद्धि—ये सब सूक्ष्म संसारके ही अंश हैं। यह जो वायु चलता है, इसीके साथ प्राणों
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🚩🔱 ❄ «ॐ»«ॐ»«ॐ» ❄ 🔱🚩   🌸🌹!:: भगवद्🌹अर्पणम् ::!🌹🌸 ※══❖═══▩ஜ ۩۞۩ ஜ▩═══❖══※   🌹🌟 राधे नाम संग हरि बोल 🌟🌹  ※❖ॐ∥▩∥श्री∥ஜ ۩۞۩ ஜ∥श्री∥▩∥ॐ❖※ 💐 प्रिय भगवद्जन .... प्रश्नानुसार ....  मन की चंचलता से भौतिक सुखाभोग की लालसा में मोहित हुई इन्द्रियों के द्वारा हुए पाप-पुण्यादिक कर्मो से बद्ध जीव अगर भगवान से रिस्ता या निकटता बनाता है। तो क्या वह स्वीकार्य करेंगे ? प्रियजन .... भगवान की ओर दृढता से विश्वास पूर्वक भक्तिमय लगन लगाने से जीव अपनी मुक्ति की राह पर कदम बढा देता है और इस भगवद्भावनामयी कर्मो की राह उसे मुक्ति की मंजिल तक ले जाती है। तदन्तर मुक्त हुए जीव का सम्बन्ध उस स्थान से होता है जहाँ भौतिक कष्ट नहीं होते। भागवत में (१०.१४.५८) कहा गया है – समाश्रिता से पदपल्लवप्लवं महत्पदं पुण्ययशो मुरारेः | भवाम्बुधिर्वत्सपदं परं पदं पदं पदं यद्विपदां न तेषाम् || “जिसने उन भगवान् के चरणकमल रूपी नाव को ग्रहण कर लिया है, जो दृश्य जगत् के आश्रय हैं और मुकुंद नाम से विख्यात हैं अर्थात् मुक्ति के दाता हैं, उसके लिए यह भवसागर गोखुर में समाये जल के समान है। उसका लक्ष्य परंपदम् ह
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🚩🔱 ❄ «ॐ»«ॐ»«ॐ» ❄ 🔱🚩 ※══❖═══▩ஜ ۩۞۩ ஜ▩═══❖══※   🌹🌟 राधे नाम संग हरि बोल 🌟🌹  ※❖ॐ∥▩∥श्री∥ஜ ۩۞۩ ஜ∥श्री∥▩∥ॐ❖※  : *निस्वार्थ प्रेम से प्रेमास्पद की प्राप्ति* : प्रिय भगवत्जन .... "प्रेम" की परिभाषा या उसके वास्तविक स्वरूप का वर्णन पूर्णत: तो संभव नही परंतु श्री राधेरानी की कृपा से अपने अभीष्ठ प्रेम को प्राप्त करने का तरीका आंशिक तौर पर हम आपके लिए वर्णित करते है।  प्रश्नानुसार .... सच्चे प्रेम को प्रेमी किस प्रकार प्राप्त कर सकता है? प्रियजन .... आपको सबसे पहले यह समझने की जरूरत है। कि आप किसी के प्रति जिस अभीष्ट स्थति को अपने हृदय में अनुभव कर रहे है। वास्तव में वह क्या है। " प्रेम " या " प्यार " ? शायद आप संशय में पढ गए होगें यह जानकर कि यह तो एक ही चीज के दो नाम है। इनमें अलगाव क्या है! तो आइये पहले हम इनके नाम व अनुभव की परिभाषा को स्पष्ट रूप से समझें .... हृदय की मुक्त आनंदमय अनुभूति का नाम " प्रेम " है। एवं हृदय की बंधनयुक्त मोहमय स्थति को हम " प्यार " कहते है। .... मोह यानी प्यार बाह्य आडम्बर है, किंतु प्रेम को आ
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🚩🔱 ❄ «ॐ»«ॐ»«ॐ» ❄ 🔱🚩   🌸🌹!:: भगवद्🌹अर्पणम् ::!🌹🌸 ※══❖═══▩ஜ ۩۞۩ ஜ▩═══❖══※   🌹🌟 राधे नाम संग हरि बोल 🌟🌹  ※❖ॐ∥▩∥श्री∥ஜ ۩۞۩ ஜ∥श्री∥▩∥ॐ❖※ 🌹भगवान को सिर्फ निस्वार्थभक्ति व प्रेम से ही पाया जा सकता है। 💐 प्रिय भगवद्जन ..... हजारों मनुष्यों में से शायद विरला मनुष्य ही यह जानने में रूचि रखता है कि पमत्मा क्या है , आत्मा क्या है, शरीर क्या है, और परमसत्य क्या है। सामान्यतया मानव आहार, निद्रा, सुख-दुख तथा मैथुन जैसी पशुवृत्तियों में लगा रहता है। प्रियजन .... भगवान आज के समय में भगवान को निस्वार्थ रूप सें मानने में अनेको में कोई एक मिलता है। इनमें से भी मुश्किल से कोई एक दिव्य आत्मज्ञान में रूचि रखता है। इन अनेकों दिव्य ज्ञानियों में ( जिन्होंने अपने दिव्यज्ञान को आत्मा, परमात्मा तथा ज्ञानयोग, ध्यानयोग द्वारा अनुभूति की क्रिया में बढाया है।) से अनेक ज्ञानियो में से भी भगवान केवल उन्हीं व्यक्तियों द्वारा ज्ञेय हैं जो भगवद्प्रेम भावनाभावित हैं। जिनके लिए अपने दिव्य प्रेम की वजह से जगत ही भगवद् स्वरूप बन गया है। ऐसे भगवद्प्रेमीजन अत्यंत दुर्लभ है। भगवान ने श्रीमद्भगवद्
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🚩🔱 ❄: «ॐ»«ॐ»«ॐ» :❄ 🔱🚩 ※══❖═══▩ஜ ۩۞۩ ஜ▩═══❖══※   🌹🌟 राधे नाम संग हरि बोल 🌟🌹  ※❖ॐ∥▩∥श्री∥ஜ ۩۞۩ ஜ∥श्री∥▩∥ॐ❖※ 🌹🌹✨ भगवद् 🙏🏻 अर्पण ✨🌹🌹 प्रियभगवद्जन ..... “जीव के शरीर के भीतर आत्मरूप मे वास करने वाले भगवान् ब्रह्माण्ड के समस्त जीवों के नियन्ता हैं। यह शरीर नौ द्वारों (दो आँखे, दो नथुने, दो कान, एक मुँह, गुदा और उपस्थ) से युक्त है | बद्धावस्था में जीव अपने आपको शरीर मानता है, किन्तु जब वह अपनी पहचान अपने अन्तर के भगवान् से करता है तो वह शरीर में रहते हुए भी भगवान् की भाँति मुक्त हो जाता है |” नवद्वारे पुरे देहि हंसो लेलायते बहिः | वशी सर्वस्य लोकस्य स्थावरस्य चरस्य च || (श्र्वेताश्र्वतर उपनिषद् ३.१८)   यदि कोई आत्म-साक्षात्कार के पथ पर अग्रसर होना चाहता है तो उसे भौतिक इन्द्रियों के वेग को रोकने का प्रयत्न करना चाहिए । ये वेग हैं – वाणीवेग, क्रोधवेग, मनोवेग, उदरवेग, उपस्थवेद तथा जिह्वावेग । भौतिक इच्छाएँ पूर्ण न होने पर क्रोध उत्पन्न होता है, क्रोध में भरे व्यक्ति का मन खिन्न हो उठता है। तब वाणी , मन, नेत्र तथा वक्षस्थलादि उत्तेजित होते हैं। और ये स्थिति दु
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🚩🔱 ❄: «ॐ»«ॐ»«ॐ» :❄ 🔱🚩 ※══❖═══▩ஜ ۩۞۩ ஜ▩═══❖══※   🌹🌟 राधे नाम संग हरि बोल 🌟🌹  ※❖ॐ∥▩∥श्री∥ஜ ۩۞۩ ஜ∥श्री∥▩∥ॐ❖※ 🌹भगवद्भावनामयी कर्म से भगवद्प्रेम व भगवद्धाम की प्राप्ति : प्रियभगवद्जन ..... भगवान ने श्रीमद्भगवद्गीता में कहा है। कि जो अपने सारे कार्यों को मुझमें अर्पित करके अविचलित भाव से मेरी भक्ति करते हुए मेरी पूजा करते हैं और अपने चित्त को मुझ पर स्थिर करके निरन्तर मेरा ध्यान करते हैं, उनके लिए हे पार्थ! मैं जन्म-मृत्यु के सागर से शीघ्र उद्धार करने वाला हूँ | ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि संन्यस्य मत्पराः | अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते || तेषाम हं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात् | भवामि न चिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम् || प्रियजन .... भक्तजन भगवान को अत्यन्त प्रिय है। भगवान अपने प्रेमी भक्तो का इस भवसागर से तुरन्त ही उद्धार कर देते हैं। शुद्ध भक्ति करनेपर मनुष्य को इसकी अनुभूति होने लगती है। जैसा पहले कहा जा चुका है कि केवल भक्ति से परमेश्र्वर को जाना जा सकता है। अतएव मनुष्य को चाहिए कि वह पूर्ण रूप से भक्त बने। भगवान् को प्राप्त करने के लिए वह अपने मन को भगवा
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🚩🔱 ❄ «ॐ»«ॐ»«ॐ» ❄ 🔱🚩 ※══❖═══▩ஜ ۩۞۩ ஜ▩═══❖══※   🌹🌟 राधे नाम संग हरि बोल 🌟🌹  ※❖ॐ∥▩∥श्री∥ஜ ۩۞۩ ஜ∥श्री∥▩∥ॐ❖※  🌹🔱⚜💧भगवतार्पणम्💧⚜🔱🌹 🌹 भगवान के शाश्र्वत अंश होते हुए भी जीवात्मा का कर्म व प्रारब्ध में बंधकर चौरासी लाख योनियो में देहांतरण : प्रिय भगवत्भक्त जन ..... श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है। कि .... इस बद्ध जगत् में सारे जीव मेरे शाश्र्वत अंश हैं । बद्ध जीवन के कारण वे छहों इन्द्रियों के घोर संघर्ष कर रहे हैं, जिसमें मन भी सम्मिलित है । ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः | मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति ||  इस श्लोक में जीव का स्वरूप स्पष्ट है । जीव परमेश्र्वर का सनातन रूप से सूक्ष्म अंश है । ऐसा नहीं है कि बद्ध जीवन में वह एक व्यष्टित्व धारण करता है और मुक्त अवस्था में वह परमेश्र्वर से एकाकार हो जाता है । वह सनातन का अंश रूप है । यहाँ पर स्पष्टतः सनातन कहा गया है । वेदवचन के अनुसार परमेश्र्वर अपने आप को असंख्य रूपों में प्रकट करके विस्तार करते हैं, जिनमें से व्यक्तिगत विस्तार भगवद्तत्व कहलाते हैं और गौण विस्तार जीव कहलाते हैं । दू
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🚩🔱 ❄ «ॐ»«ॐ»«ॐ» ❄ 🔱🚩 ※══❖═══▩ஜ ۩۞۩ ஜ▩═══❖══※   🌹🌟 राधे नाम संग हरि बोल 🌟🌹  ※❖ॐ∥▩∥श्री∥ஜ ۩۞۩ ஜ∥श्री∥▩∥ॐ❖※  🌹भगवान जीवमात्र के हृदय में है।🌹 प्रिय भगवद्जन ..... भगवान जीवमात्र के हृदय में विद्यमान है। इसका हमें हमारे धर्मगर्थों में अनेकों जगह वर्णन मिलता है। श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार ... सर्वस्य चाहं ह्रदि सन्निविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च | मैं प्रत्येक जीव के हृदय में आसीन हूँ और मुझ से ही स्मृति, ज्ञान तथा विस्मृति होती है। तात्पर्य .... परमेश्र्वर परमात्मा रूप में प्रत्येक जीव के हृदय में स्थित हैं और उन्हीं के कारण सारे कर्म प्रेरित होते हैं | जीव अपने विगत जीवन की सारी बातें भूल जाता है, लेकिन उसे परमेश्र्वर के निर्देशानुसार कार्य करना होता है, जो उसके सारे कर्मों के साक्षी है | अतएव वह अपने विगत कर्मों के अनुसार कार्य करना प्रारम्भ करता है | इसके लिए आवश्यक ज्ञान तथा स्मृति उसे प्रदान की जाती है | लेकिन वह विगत जीवन के विषय में भूलता रहता है | इस प्रकार भगवान् न केवल सर्वव्यापी हैं, अपितु वे प्रत्येक हृदय में अन्तर्यामी भी हैं | वे विभिन्न कर्मफ
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🚩🔱 ❄: «ॐ»«ॐ»«ॐ» :❄ 🔱🚩 ※══❖═══▩ஜ ۩۞۩ ஜ▩═══❖══※   🌹🌟 राधे नाम संग हरि बोल 🌟🌹  ※❖ॐ∥▩∥श्री∥ஜ ۩۞۩ ஜ∥श्री∥▩∥ॐ❖※ प्रिय भगवद्भक्तजन .... आपके प्रश्नानुसार व्यक्ति की संतुष्टी कब संभव है प्रतिघातक इच्छा व तृष्णा से भरे इस जनसागर से बचना किस प्रकार संभव है ? प्रियजन ..... यह सिर्फ आपकी ही नहीं वरन् ज्यादातर व्यक्तियों की समस्याऐं है । समस्याऐं जैसे – जन्म, मृत्यू , जरा, व्याधि , हानि , लाभाआदिक – की निवृत्ति धन-संचय तथा आर्थिक विकास से संभव नहीं है | विश्र्व के विभिन्न भागों में ऐसे राज्य हैं जो जीवन की सारी सुविधाओं से तथा सम्पत्ति एवं आर्थिक विकास से पूरित हैं, किन्तु फिर भी उनके सांसारिक जीवन की समस्याएँ ज्यों की त्यों बनी हुई हैं । यह प्राकृतिक नियम है कि भौतिक कार्यकलाप की प्रणाली ही हर एक के लिए चिन्ता का कारण है | पग-पग पर उलझन मिलती है, अतः  गुरु के पास जाना आवश्यक है, जो जीवन के उद्देश्य को पूरा करने के लिए समुचित पथ-निर्देश दे सके | समग्र वैदिक ग्रंथ हमें यह उपदेश देते हैं कि जीवन की अनचाही उलझनों से मुक्त होने के लिए  गुरु के पास जाना चाहिए | ये उलझनें उस दावाग्नि क