🚩🔱 ❄: «ॐ»«ॐ»«ॐ» :❄ 🔱🚩

※══❖═══▩ஜ ۩۞۩ ஜ▩═══❖══※
  🌹🌟 राधे नाम संग हरि बोल 🌟🌹
 ※❖ॐ∥▩∥श्री∥ஜ ۩۞۩ ஜ∥श्री∥▩∥ॐ❖※

🌹भगवद्भावनामयी कर्म से भगवद्प्रेम व भगवद्धाम की प्राप्ति :

प्रियभगवद्जन .....

भगवान ने श्रीमद्भगवद्गीता में कहा है। कि जो अपने सारे कार्यों को मुझमें अर्पित करके अविचलित भाव से मेरी भक्ति करते हुए मेरी पूजा करते हैं और अपने चित्त को मुझ पर स्थिर करके निरन्तर मेरा ध्यान करते हैं, उनके लिए हे पार्थ! मैं जन्म-मृत्यु के सागर से शीघ्र उद्धार करने वाला हूँ |

ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि संन्यस्य मत्पराः |
अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते ||
तेषाम हं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात् |
भवामि न चिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम् ||

प्रियजन .... भक्तजन भगवान को अत्यन्त प्रिय है। भगवान अपने प्रेमी भक्तो का इस भवसागर से तुरन्त ही उद्धार कर देते हैं। शुद्ध भक्ति करनेपर मनुष्य को इसकी अनुभूति होने लगती है। जैसा पहले कहा जा चुका है कि केवल भक्ति से परमेश्र्वर को जाना जा सकता है। अतएव मनुष्य को चाहिए कि वह पूर्ण रूप से भक्त बने। भगवान् को प्राप्त करने के लिए वह अपने मन को भगवान में पूर्णतया एकाग्र करे। वह भगवद् भावना रखकर ही प्रत्येक कर्म करे। चाहे वह जो भी कर्म करे लेकिन वह कर्म केवल भगवान के लिए होना चाहिए। भक्ति का यही आदर्श है। भक्त भगवान् को प्रसन्न करने के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं चाहता । उसके जीवन का उद्देश्य भगवान को प्रसन्न करना होता है। और भगवद्प्रेमभाव की प्राप्ती लिए वह सब कुछ कर सकता है। यह विधि अत्यन्त सरल है। मनुष्य अपने कार्य में लगा रह कर " हरे कृष्ण हरे राम " महामन्त्र का कीर्तन कर सकता है | ऐसे दिव्य कीर्तन से भक्त भगवान् के प्रति आकृष्ट होता जाता है। और भगवद्प्रेम को प्राप्त करता है।

 वराह पुराण में एक श्लोक आया है -

नयामि परमं स्थानमर्चिरादिगतिं विना |
गरुडस्कन्धमारोप्य यथेच्छमनिवारितः ||

 अर्थात ... भगवान की निस्वार्थ प्रेमभक्ति के अलावा भक्त को  वैकुण्ठलोक में आत्मा को ले जाने के लिए अष्टांगयोग साधने की आवश्यकता नहीं है। इसका भार भगवान् स्वयं अपने ऊपर लेते हैं। वे यहाँ पर स्पष्ट कर रहे हैं कि वे स्वयं ही उद्धारक बनते हैं। जिस तरह बालक अपने माता-पिता द्वारा अपने आप रक्षित होता रहता है, जिस प्रकार किसी अबोध बालक की स्थिति माता पिता के संरक्षण में सुरक्षित रहती है। उसी प्रकार भक्त को योगाभ्यास द्वारा अन्य लोकोंमें जाने के लिए प्रयत्न करने की आवश्यकता नहीं होती, अपितु भगवान् अपने अनुग्रहवश स्वयं ही तुरन्त आते हैं और भक्त को भवसागर से उबार लेते हैं।

कोई कितना ही कुशल तैराक क्यों न हो, और कितना ही प्रयत्न क्यों न करे, किन्तु समुद्र में गिर जाने पर वह अपने को नहीं बचा सकता । किन्तु यदि कोई आकर उसे अनुग्रहकर जल से बाहर निकाल ले, तो वह आसानीसे बच जाता है। इसी प्रकार भगवान् भक्त को इस भवसागर से निकाल लेते हैं। मनुष्य को केवल भगवद्भावनामृत की सुगम विधि का अभ्यास करना होता है , और अपने आपको अनन्य भक्ति में प्रवृत्त करना होता है। किसी भी बुद्धिमान भक्त को चाहिए कि वह अन्य समस्त मार्गों की अपेक्षा भक्तिप्रेमयोग को चुने ।

नारायणीय में इसकी पुष्टि इस प्रकार हुई है-

या वै साधनसम्पत्तिः पुरुषार्थचतुष्टये |
तया विना तदाप्नोति नरो नारायणाश्रयः ||

भावार्थ यह है कि मनुष्य को चाहिए कि वह न तो सकाम कर्म की विभिन्न विधियों में उलझे, न ही कोरे चिन्तन से ज्ञान का अनुशीलन करे | जो परम सत्य भगवान् की भक्ति में लीन है, वह उन समस्त लक्ष्यों को प्राप्त करता है। जो अन्य योग विधियों, चिन्तन, अनुष्ठानों, यज्ञों, दानपुण्यों आदि से प्राप्त होने वाले हैं। भगवद्प्रेम व भक्ति का यही विशेष वरदान है।

भगवद्गीता का निष्कर्ष अठारहवें अध्याय में इस प्रकार व्यक्त हुआ है -

सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज |
अहम् त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ||

आत्म-साक्षात्कार की अन्य समस्त विधियों को त्याग कर केवल भगवद्भावना में भक्ति सम्पन्न करनी चाहिए । इससे जीवन की चरम सिद्धि प्राप्त की जा सकती है। मनुष्य को अपने गत जीवन के पाप कर्मों पर विचार करने की आवश्यकता नहीं रह जाती, क्योंकि उसका उत्तरदायित्व भगवान् अपने ऊपर ले लेते हैं। अतएव मनुष्य को व्यर्थ ही आध्यात्मिक अनुभूति में अपने उद्धार का प्रयत्ननहीं करना चाहिए । प्रत्येक व्यक्ति को चाहिए कि वह परम शक्तिमान ईश्र्वर की शरण ग्रहण करे | यही जीवन की सर्वोच्च सिद्धि है।

प्रियजन .... भगवान ने श्रीमदभगवद् गीता  में कहा है। कि सदैव मेरा चिन्तन करो, मेरे भक्त बनो, मेरी पूजा करो और मुझे नमस्कार करो । इस प्रकार तुम निश्चित रूप से मेरे पास आओगे । मैं तुम्हें वचन देता हूँ, क्योंकि तुम मेरे परम प्रिय हो ।

मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु |
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे ||

इसका भावार्थ ज्ञान का गुह्यतम अंश है कि मनुष्य भगवान का शुद्ध भक्त बने, सदैव उन्हीं का चिन्तन करे और उन्हीं के लिए कर्म करे । व्यावसायिक ध्यानी बनना कठिन नहीं । जीवन को इस प्रकार ढालना चाहिए कि भगवान का चिन्तन करने का सदा अवसर प्राप्त हो । मनुष्य इस प्रकार कर्म करे कि उसके सारे नित्य कर्म भगवद्भावनामयी या भगवद्प्रेम के लिए हों | वह अपने जीवन को इस प्रकार व्यवस्थित करे कि चौबीसों घण्टे भगवद्प्रेम भावना रहकर में उनके सत्यप्रेममयी अत्यन्त सुंदर स्वरूप का ही चिन्तन करता रहे और भगवान् की प्रतिज्ञा है कि जो इस प्रकार भगवद्भावनामयी होगा, वह निश्चित रूप से भगवद्धाम को जाएगा जहाँ वह साक्षात् भगवान के सान्निध्य में रहेगा ।
             
         ✍🏻 ..... : कृष्णा :: श्री राधा प्रेमी :
💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐

प्रियभगवद्जन .... अगर आपको श्री राधेरानी की कृपा से सहेजा गया यह अनमोल ज्ञान पसंद आया हो तो एक बार अपने प्रिय प्रभू का प्रेम पूर्वक ध्यान कर हमें " श्री राधे ..श्री राधे ..श्री राधे राधे .., " लिखकर अपने विचार अवश्य शेयर करें 💐🙏🏻 अथवा आपको इस लेख या अपने आध्यात्म से संबंधित कोई प्रश्न या शंका है। तो हमें नं. 9009290042 पर मैसेज अवश्य करें भगवद्कृपा एवं भगवद्इच्छा रही तो हम अवश्य आपका समाधान भेजेगे 💐🙏🏻
आपकी समस्त शुभमनोकामनाएं पूर्ण हों इसी मंगल कामना के साथ ....
           ......... : कृष्णा :: श्री राधा प्रेमी :

 ※❖ॐ∥▩∥श्री∥ஜ ۩۞۩ ஜ∥श्री∥▩∥ॐ❖※
 🌹۞☀∥ राधेकृष्ण: शरणम् ∥☀۞🌹
 ※❖ॐ∥▩∥श्री∥ஜ ۩۞۩ ஜ∥श्री∥▩∥ॐ❖※

🌹: कृष्णा : श्री राधा प्रेमी : 🌹      
 https://plus.google.com/113265611816933398824

🌹एक बार प्रेम से बोलिए ...
🌹जय जय श्री राधे ...........
🌹प्यारी श्री " राधे .. "🌹💐
※══❖═══▩ஜ ۩۞۩ ஜ▩═══❖══※

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट