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  🌸🌹!:: भगवद्🌹अर्पणम् ::!🌹🌸
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  🌹🌟 राधे नाम संग हरि बोल 🌟🌹
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🌹 "स्व:सत्" का भाव "असत् अहं" का अभाव :

एक बहुत सुगम बात है। उसे विचारपूर्वक गहरी रीतिसे समझ लें तो तत्काल तत्त्वमें स्थित हो जायँ। जैसे राजाका राज्यभरसे सम्बन्ध होता है, वैसे ही परमात्मतत्त्वका मात्र वस्तु, व्यक्ति, क्रिया आदिके साथ सम्बन्ध है। राजाका सम्बन्ध तो मान्यतासे है, पर परमात्माका सम्बन्ध वास्तविक है। हम परमात्माको भले ही भूल जायँ, पर उसका सम्बन्ध कभी नहीं छूटता। आप चाहे युग-युगान्तरतक भूले रहें तो भी उसका सम्बन्ध सबसे एक समान है। आपकी स्थिति जाग्रत्, स्वप्न या सुषुप्ति किसी अवस्थामें हो, आप योग्य हों या अयोग्य, विद्वान् हों या अनपढ़, धनी हों या निर्धन, परमात्माका सम्बन्ध सब स्थितियोंमें एक समान है। इसे समझनेके लिये युक्ति बताता हूँ। आप मानते हैं कि बालकपनमें था, अभी मैं हूँ और आगे वृद्धावस्थामें भी मैं रहूँगा। बालकपन, जवानी और वृद्धावस्था—तीनोंका भेद होनेसे ‘था’, ‘हूँ’ और ‘रहूँगा’ ये तीन भेद हुए, पर अपने होनेपनमें क्या फर्क पड़ा ? भूत, वर्तमान और भविष्य— तीनोंमें अपना होनापन (सत्ता) तो एक ही रहा। अत: आप कैसे भी हों, कैसे भी रहें, आपकी सत्ता एक समान अखण्ड रहती है। आपका कभी अभाव नहीं होता। वह सत्ता ही शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदिको सत्ता-स्फूॢत देती है। वह शरीरादिके आश्रित नहीं है। इससे यह सिद्ध हुआ कि आप हरदम ‘है’ में स्थित रहते हैं। जड़ वस्तु, क्रिया आदिका सम्बन्ध न रखकर ‘है’ से सम्बन्ध रखना है। यह जाग्रत्में सुषुप्ति है।

वह सत्ता मन, बुद्धि, इन्द्रियों, शरीरकी क्रियाओंमें अनुस्यूत है। वही मन, बुद्धि आदिका प्रकाशक, आधार है। उस सर्व-प्रकाशक, सर्वाधारमें हमें स्थित रहना है। वह सत्ता सदा ज्यों-की-त्यों रहती है। जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति, स्थिरता, चंचलता, योग्यता, अयोग्यता, बालकपन, जवानी, वृद्धावस्था, विपत्ति, सम्पत्ति, विद्वत्ता, मूर्खता आदि सभी उस सत्तासे प्रकाश पाते हैं। वस्तुत: उसमें आपकी स्थिति स्वत:सिद्ध है। केवल उसकी ओर लक्ष्य, दृष्टि करनी है। शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदिके साथ सम्बन्ध ही मोह है। इस मोहका नाश होनेपर स्मृति जाग्रत् हो जाती है—
‘नष्टो मोह: स्मृतिर्लब्धा’ (गीता १८। ७३)।
स्मृतिका अर्थ—जो बात पहलेसे ही थी, उसकी याद आ गयी। कोई नया ज्ञान होना स्मृति नहीं है। अब चाहे कुछ हो जाय, चाहे कोई व्यथा हमारा स्वरूप सच्चिदानन्द है आ जाय, अपनी सत्तामें क्या फर्क पड़ता है ? केवल अपनी सत्ताकी ओर दृष्टि करनी है, फिर इसी क्षण जीवन्मुक्ति है। इसमें कोई अभ्यास नहीं करना है।

सत्ताकी ओर दृष्टि न करें, तब भी वह वैसी-की-वैसी ही रहती है। पर उस ओर दृष्टि न करनेसे आप अपनी स्थिति क्रियाओं, पदार्थों, अवस्थाओं आदिमें मानते हैं। भोजन करते समय ‘मैं खाता हूँ’, जल पीते समय ‘मैं पीता हूँ’, जाते समय ‘मैं जाता हूँ’ आदि सब स्थितियों में ‘हूँ’ समान ही रहता है। यदि ‘मैं’ को हटा दें तो ‘हूँ’ नहीं रहेगा अपितु ‘है’ रहेगा। वह ‘है’ सदा ज्यों-का-त्यों रहता है।

खोया कहे सो बावरा पाया कहे सो कूर ।
पाया खोया कुछ नहीं ज्यों-का-त्यों भरपूर।।

इस ‘है’ में स्थित होते ही अखण्ड समाधि, जाग्रत् , सुषुप्ति हो जाती है।

              ....... 🌹संत प्रसादम्🌹

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🌹: कृष्णा :: श्री राधा प्रेमी :🌹
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