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 : *निस्वार्थ प्रेम से प्रेमास्पद की प्राप्ति* :

प्रिय भगवत्जन .... "प्रेम" की परिभाषा या उसके वास्तविक स्वरूप का वर्णन पूर्णत: तो संभव नही परंतु श्री राधेरानी की कृपा से अपने अभीष्ठ प्रेम को प्राप्त करने का तरीका आंशिक तौर पर हम आपके लिए वर्णित करते है।

 प्रश्नानुसार .... सच्चे प्रेम को प्रेमी किस प्रकार प्राप्त कर सकता है?

प्रियजन .... आपको सबसे पहले यह समझने की जरूरत है। कि आप किसी के प्रति जिस अभीष्ट स्थति को अपने हृदय में अनुभव कर रहे है। वास्तव में वह क्या है। " प्रेम " या " प्यार " ? शायद आप संशय में पढ गए होगें यह जानकर कि यह तो एक ही चीज के दो नाम है। इनमें अलगाव क्या है! तो आइये पहले हम इनके नाम व अनुभव की परिभाषा को स्पष्ट रूप से समझें ....
हृदय की मुक्त आनंदमय अनुभूति का नाम " प्रेम " है। एवं हृदय की बंधनयुक्त मोहमय स्थति को हम " प्यार " कहते है। .... मोह यानी प्यार बाह्य आडम्बर है, किंतु प्रेम को आन्तरिक अनभूति कहा गया है। प्यार का भौतिक - सांसारिकता से घनिष्ठ संबंध है, जबकि प्रेम अलौकिक समर्पण का द्योतक है। प्यार एकांगी है, मगर प्रेम उभय पक्षीय है। प्यार में "मै" की प्रधानता ( मै कर्ता हूं ) पायी जाती है। परंतु प्रेम में परमात्मा का वास होता है। प्रेम साधन व साध्य दोनो है। लेकिन प्यार में यह गुंण नहीं है। प्यार अधोगामी है, तो प्रेम उत्कर्ष की राह है। वस्तुत: प्यार भौतिक भवबंधन का कारण है, मगर प्रेम मुक्त अभिव्यक्ति है। प्यार दु:ख रूप है, पर प्रेम आनंद स्वरूप है। प्यार के व्यापारी ( प्यार करने वाले ) अनेकों है। परंतु सच्चे प्रेम के पुजारी ( स्वयं को अपने प्रेमी की खुशी के लिए मिटाने वाले ) विरले ही होते है। प्यार यानी मोह का अंत मृत्यु है। लेकिन प्रेम की परिणति मोक्ष यानी मुक्ति है। प्यार बिक भी जाता है, लेकिन प्रेम हमेसा दृढता से टिका रहता है। प्यार मस्ताना है, पर प्रेम दीवाना होता है। प्यार में आदान ( लेने या मिलने की इच्छा ) है, पर प्रेम प्रदान ( सिर्फ देने या प्रेमास्पद को खुश देखने की इच्छा ) है। प्रेम उपासनामयी है, परंतु प्यार वासनामयी है। राग से प्यार की प्यार की उत्पत्ती होती है और अनुराग से प्रेम पोषित होता है।

निस्वार्थ सच्चा प्रेम भगवद् स्वरूप माना गया है।-

प्रेम हरि कौ रूप है, त्यौं हरि प्रेम सरूप ।
एक होइ द्वै यौं लसे ज्यौं सूरज और धूप ।।

जब मनुष्य अपने प्यारे के प्रेम रंग में रंग जाता है तब वह प्रेममय हो जाता है, उस समय प्रेम , प्रेमी और प्रेमास्पद तीनों एक ही रूप में परिणित होकर एक ही बन जाते है। प्रेमी , प्रेम और प्रेमास्पद कहने के लिए ही तीन है। परंतु वास्तव में एक ही वस्तु के तीन रूप है। जैसे कि जल के हमें तीन ( वाष्प , बर्फ व तरल ) अलग - अलग रूप देखने को मिलते है परंतु वास्तव में तीनों एक ही है।

प्रेमी के जीवन की प्रत्येक चेष्टा सहज ही प्रेमास्पद के लिए प्रित्यर्थ होती है। जो प्रेमास्पद के लिए प्रतिकूल हो वही अविधि और जो प्रेमास्पद के अनुकूल हो यही विधी है। यही प्रेम जगत का विधी निषेध है। वस्तुत: वहां सब कुछ प्यारे के मन का ही होता है। क्योकि जहाँ अन्तरङ्गता होती है। वहां प्रेमास्पद के मन की भावना प्रेमी के मन में आना स्वाभाविक है।

प्रिय भगवत्जन अधिकतर भक्तजन प्यारे के सच्चे प्रेम से अनभिज्ञ रहते है। जैसे कि -

प्रेम प्रेम सब कोइ कहे, प्रेम ना चीन्हे कोय ।
जेहि प्रेमहिं साहिब मिले, प्रेम कहावे सोय ।।

सच्चा प्रेमी अपने प्रेमास्पद के अतिरिक्त और किसी भी वस्तु का चिन्तन नही करता है। यहां तक कि प्रेमास्पद का चिन्तन भी वह प्रेमास्पद के प्रेम के लिए ही करता है। अपने प्रेमास्पद से वह अपने निश्चल प्रेम के बदले में प्रेमास्पद की प्रसन्नता के अलावा कुछ भी नहीं चाहता । प्रेमी के लिए प्रेमास्पद कुछ सोचे या ना सोचे , उसकी ओर प्रेमास्पद देखे या ना देखे , भले ही प्रेमी के निश्चल प्रेम के बदले प्रेमास्पद प्रेमी को कुछ भी ना दे पर प्रेमी का मन मलिन नहीं होता , बल्कि अपने प्रेमास्पद की प्रसन्नता देखकर ही उसका प्रेम उत्तरोत्तर बढता जाता है।

 प्रियजन  .... सच्चा प्रेम तो वही है। जिसमें प्रियतम् का मिलना हो जाए । और प्रियतम मिलते है। प्रेम भरी हृदय की व्याकुलता से, करुणापूर्ण हृदय की उत्कट इच्छा से! प्रेमी जब अपने प्रेमास्पद के विरह में व्याकुल होता है। तो पल पल उसे अपने प्रेमास्पद के आने की आहट ही सुनाई देती है। बराबर उसकी छवि आँखो में दिखाई देती है। कोई भी आ रहा हो पर उसे यही प्रतीत होता है कि उसका प्राणप्रियतम् ही आ रहा है।

जब तक प्रेमी के अंदर "मैं" है तब तक वह पूर्ण प्रेमत्व को नही पा सकता है। और जब तक प्रेमी का प्रेम सच्चा ना हो , पूर्ण ना हो तब तक प्रेमी को प्रेमास्पद की प्राप्ती नही होती है। प्रेमी को प्रेम के पूर्णत्व के लिए स्व:तत्व से जुडी कामनाओं का त्याग करना होगा अपने अंदर "तूं" ( प्रेमास्पद ) को स्थापित करना होगा जब प्रेमी के हृदय में प्रेमभाव का समंदर उमड पडें जिसका कोई अंत ना हो, हृदय में एक ही भाव एक ही आवाज ... तूं ही तू .. बस तूं ही तू .... सुनाई दे , तभी प्रेमी अपने प्रिय प्रेमास्पद को पूर्णतया पा सकता है। श्री रामचरितमानस में कहा गया है।-

जेहि कें जेहि पर सत्‍य सनेहू ।
सो तेहि मिलइ न कछु संदेहू ।।

 प्रेमी अपने जीवन को जब प्रेमास्पद के प्रेम में पूर्णतया रंग लेता है। तो निस्वार्थ परिपक्व प्रेम से प्रेमियों की पवित्र प्रेमाग्नि में भोग-मोक्ष की सारी कामनाएँ, संसार की सारी आसक्तियाँ और ममताएँ सर्वथा जलकर भस्म हो जाती हैं। उनके द्वारा सर्वस्व का त्याग सहज स्वाभाविक होता है। किसी भी प्रकार की सिद्धी व किसी भी प्रकार की मुक्ती का उन्हें लोभ नही रहता है। अपने प्राणप्रियतम को समस्त आचार अर्पण करके वे केवल नित्य-निरन्तर उनके मधुर स्मरण को ही अपना जीवन बना लेते हैं। उनका वह पवित्र प्रेम सदा बढ़ता रहता है’ क्योंकि वह न कामनापूर्ति के लिये होता है न गुणजनित होता है। उसका तार कभी टूटता ही नहीं, सूक्ष्मतर रूप से नित्य-निरन्तर उसकी अनुभूति होती रहती है और वह प्रतिक्षण नित्य-नूतन मधुर रूप से बढ़ता ही रहता है। उसका न वाणी से प्रकाश हो सकता है, न किसी चेष्टा से ही उसे दूसरे को बताया जा सकता है।

प्रेमियों के इस पवित्र प्रेम में इन्द्रिय-तृप्ति, वासना सिद्धि, भोग-लालसा आदि को स्थान नहीं रहता। बुद्धि, मन, प्राण, इन्द्रियाँ— सभी नित्य-निरन्तर परम प्रियतम के साथ सम्बन्धित रहते हैं। मिलन और वियोग— दोनों ही नित्य-नवीन रसवृद्धि में हेतु होते हैं। ऐसा प्रेमी केवल प्रेम की ही चर्चा करता है, प्रेम की चर्चा सुनता है, उसे सर्वत्र प्रेम ही प्रेम दिखाई देता है। वह हर शब्द - वाणी में अपने प्रेमास्पद के प्रेम रस का अनुभव करता है वह प्रेम का ही मनन करता है, प्रेम में ही संतुष्ट रहता और प्रेम में ही नित्य रमण करता है। यही सच्चे प्रेम को पाने का अभेद्य सूत्र है। जिसका आप अपने प्रेमास्पद ( जीवात्मा से लेकर परमात्मा तक ) पर प्रयोग कर सकते है। अगर आपका प्रेम सच्चा है। कोई भी प्रेमास्पद इस सूत्र को भेद या तोड नही सकता है। अर्थात आपको आपका प्रेम अवश्य मिलेगा ।

       ...... ✍🏻 : कृष्णा :: श्री राधा प्रेमी :

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 🌹۞☀∥ राधेकृष्ण: शरणम् ∥☀۞🌹
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