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  🌹🌟 राधे नाम संग हरि बोल 🌟🌹
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 🌹भगवान जीवमात्र के हृदय में है।🌹

प्रिय भगवद्जन .....

भगवान जीवमात्र के हृदय में विद्यमान है। इसका हमें हमारे धर्मगर्थों में अनेकों जगह वर्णन मिलता है। श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार ...

सर्वस्य चाहं ह्रदि सन्निविष्टो
मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च |

मैं प्रत्येक जीव के हृदय में आसीन हूँ और मुझ से ही स्मृति, ज्ञान तथा विस्मृति होती है।

तात्पर्य .... परमेश्र्वर परमात्मा रूप में प्रत्येक जीव के हृदय में स्थित हैं और उन्हीं के कारण सारे कर्म प्रेरित होते हैं | जीव अपने विगत जीवन की सारी बातें भूल जाता है, लेकिन उसे परमेश्र्वर के निर्देशानुसार कार्य करना होता है, जो उसके सारे कर्मों के साक्षी है | अतएव वह अपने विगत कर्मों के अनुसार कार्य करना प्रारम्भ करता है | इसके लिए आवश्यक ज्ञान तथा स्मृति उसे प्रदान की जाती है | लेकिन वह विगत जीवन के विषय में भूलता रहता है | इस प्रकार भगवान् न केवल सर्वव्यापी हैं, अपितु वे प्रत्येक हृदय में अन्तर्यामी भी हैं | वे विभिन्न कर्मफल प्रदान करने वाले हैं | वे निराकार ब्रह्म तथा साकार अन्तर्यामी परमात्मा के रूप में पूजनीय हैं।

 जीव ज्योंही अपने इस शरीर को छोड़ता है, इसे भूल जाता है, लेकिन परमेश्र्वर द्वारा प्रेरित होने पर वह फिर से काम करने लगता है | यद्यपि जीव भूल जाता है, लेकिन भगवान् उसे बुद्धि प्रदान करते हैं, जिससे वह अपने पूर्वजन्म के अपूर्ण कार्य को फिर से करने लगता है | अतएव जीव अपने हृदय में स्थित परमेश्र्वर के आदेशानुसार इस जगत् में सुख या दुख का भोग करता है।

प्रियजन ... भगवान श्रीगीता में आगे कहते है।....

महाभूतान्यहंकारो बुद्धिरव्यक्तमेव च।
इन्द्रियाणि दशैकं च पंच चेन्द्रियगोचराः।।
इच्छा द्वेषः सुखं दुःखं संघातश्चेतना धृतिः।
एतत्क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतम्।।

पाँच महाभूत, अहंकार, बुद्धि और मूल प्रकृति भी तथा दस इन्द्रियाँ, एक मन और पाँच इन्द्रियों के विषय अर्थात् शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध तथा इच्छा, द्वेष, सुख-दुःख, स्थूल देह का पिण्ड, चेतना और धृति – इन सभी गुंण - विकारों से जीवों के शरीरों का निर्माण होता है। और इन सभी जीवो में परमात्मा आत्मतत्व के रूप में चैतन्य है।

 यहां ध्यान देने योग्य बात यह है। कि परमात्मा आत्मतत्व से सभी में चैतन्य है। परंतु स्वयं प्रकट नहीं है। इसी वजह से जीवमात्र में होते हुए भी वह जीव के रूप, रंग व कर्म से निर्लिप्त रहता है जैसे कि दुग्ध में घृत है। परंतु दृश्य नहीं होता और दुग्ध से बने किसी भी व्यंजन में घृत का नाम नहीं रहता परंतु घृत का अंश व स्वाद हर व्यंजन में रहता है। जैसे कि हमें दुग्ध से घृत निकालने के लिए यत्न करना पडता है। ( घृत निकालने के लिए दुग्ध को पहले गर्म करते है। फिर उसे दही के रूप में जमाया जाता है। , तदोपरांत मथने के पश्चात निकले हुए मख्खन को गर्म करने पर हमें घृत की प्राप्ती होती है। ) उसी तरह हमें स्वयं में परामात्मा के आत्मतत्व की प्राप्ती के लिए भगवत्भक्ती रूपी लगन में खुद को गर्म करना पडता है। "मै" रूप स्थापित स्व: कर्मो को जमाना पडता है। , दुविधाओं व विचारो का मंथन करना पडता है। तदोपरान्त स्वयं में प्रकट हुए निस्वार्थ भगवत्प्रेम की दाहकता में हमें आत्मा रूपी परमात्मा की प्राप्ती होती है। अत: स्पष्ट है। कि जीवमात्र में सदृश्य रहते हुए भी आत्मरूपी परमात्मा जीव के कर्मो से निर्लिप्त रहता है। व दृश्य नही होता है। जीव अपने कर्मो का भोगी स्वयं ही होता है।

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 🌹۞☀∥ राधेकृष्ण: शरणम् ∥☀۞🌹
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🌹एक बार प्रेम से बोलिए ...
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