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  🌸🌹!:: भगवद्🌹अर्पणम् ::!🌹🌸
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  🌹🌟 राधे नाम संग हरि बोल 🌟🌹
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💐 प्रिय भगवद्जन ....

प्रश्नानुसार ....  मन की चंचलता से भौतिक सुखाभोग की लालसा में मोहित हुई इन्द्रियों के द्वारा हुए पाप-पुण्यादिक कर्मो से बद्ध जीव अगर भगवान से रिस्ता या निकटता बनाता है। तो क्या वह स्वीकार्य करेंगे ?

प्रियजन .... भगवान की ओर दृढता से विश्वास पूर्वक भक्तिमय लगन लगाने से जीव अपनी मुक्ति की राह पर कदम बढा देता है और इस भगवद्भावनामयी कर्मो की राह उसे मुक्ति की मंजिल तक ले जाती है। तदन्तर मुक्त हुए जीव का सम्बन्ध उस स्थान से होता है जहाँ भौतिक कष्ट नहीं होते। भागवत में (१०.१४.५८) कहा गया है –

समाश्रिता से पदपल्लवप्लवं महत्पदं पुण्ययशो मुरारेः |
भवाम्बुधिर्वत्सपदं परं पदं पदं पदं यद्विपदां न तेषाम् ||

“जिसने उन भगवान् के चरणकमल रूपी नाव को ग्रहण कर लिया है, जो दृश्य जगत् के आश्रय हैं और मुकुंद नाम से विख्यात हैं अर्थात् मुक्ति के दाता हैं, उसके लिए यह भवसागर गोखुर में समाये जल के समान है। उसका लक्ष्य परंपदम् है। अर्थात् वह स्थान जहाँ भौतिक कष्ट नहीं है या कि वैकुण्ठ है; वह स्थान नहीं जहाँ पद-पद पर संकट हो ।”

अज्ञानवश मनुष्य यह नहीं समझ पाता कि यह भौतिक जगत् ऐसा दुखमय स्थान है जहाँ पद-पद पर संकट हैं। केवल अज्ञानवश अल्पज्ञानी पुरुष यह सोच कर कि भौतिककर्मों से वे सुखी रह सकेंगे सकाम कर्म करते हुए स्थिति को सहन करते हैं। उन्हें यह ज्ञात नहीं है कि इस संसार में कहीं भी कोई शरीर दुखों से रहित नहीं है। संसार में सर्वत्र जीवन के दुख- जन्म, मृत्यु, जरा तथा व्याधि – विद्यमान हैं। किन्तु जो अपने वास्तविक आत्म स्वरूप को समझ लेता है और इस प्रकार भगवान् की स्थिति को समझ लेता है , वही भगवान् की प्रेमा-भक्ति में लगता है। फलस्वरूप वह वैकुण्ठलोक जाने का अधिकारी बन जाता है जहाँ न तो भौतिक कष्टमय जीवन है न ही काल का प्रभाव तथा मृत्यु है। अपने आत्म स्वरूप को जानने का अर्थ है भगवान् की अलौकिक स्थिति को भी जान लेना । भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता में कहा है।-

कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः |
जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम् ||

भगवद्भक्ति में लगे रहकर बड़े-बड़े ऋषि, मुनि अथवा भक्तगण अपने आपको इस भौतिक संसार में कर्म के फलों से मुक्त कर लेते हैं। इस प्रकार वे जन्म-मृत्यु के चक्र से छूट जाते हैं और भगवान् के पास जाकर उस अवस्था को प्राप्त करते हैं, जो समस्त दुखों से परे है।

प्रियजन .... जिस भगवद्भक्त ने अपने जीवन के उद्देश्य को भगवान की प्रसन्नता व उनसे बनाए हुए स्वयं के रिस्ते को दृढता पूर्वक निभाना ही बना लिया है उसे भगवद्भावना के अंतर्गत हुए कार्यों में सुख या दुख, हानि या लाभ, जय या पराजय आदि का कोई महत्त्व नहीं दिया जाता है। भक्त की दिव्य भगवद्चेतना तो यही होनी चाहिये कि हर कार्य भगवान के निमित्त किया जाय, क्योकि भगवद्भावनांतर्गत किये गए कर्मो का कोई भौतिक बन्धन (फल) नहीं होता । जो कोई सतोगुण या रजोगुण के अधीन होकर अपनी इन्द्रियतृप्ति के लिए कर्म करता है उसे अच्छे या बुरे फल प्राप्त होते हैं किन्तु जो भगवद्भावनामयी कार्यों में अपने आपको समर्पित कर देता है वह सामान्य कर्म करने वाले के समान किसी का कृतज्ञ या ऋणी नहीं होता । भागवत में (११.५.४१) कहा गया है –

देवर्षिभूताप्तनृणां पितृणां न किङ्करो नायमृणी च राजन् |
सर्वात्मा यः शरणं शरण्यं गतो मुकुन्दं परिहत्य कृतम् |

“जिसने अन्य समस्त कार्यों को त्याग कर मुकुन्द श्रीकृष्ण की शरण ग्रहण कर ली है वह न तो किसी का ऋणी है और न किसी का कृतज्ञ – चाहे वे देवता, साधु, सामान्यजन, अथवा परिजन, मानवजाति या उसके पितर ही क्यों न हों ।”

प्रियजन .... तात्पर्य यह है। कि भक्त को अपने समस्त कर्म भगवान को समर्पित कर उनसे एक दिव्य अटूट रिस्ता स्थापित करना चाहिये एवं विश्वास व दृढता पूर्वक अपनी स्थति भगवद्भावनामयी बनाकर जीवन पर्यंत उस रिस्ते को निभाना चाहिये , भगवान से बनाया हुआ यही रिस्ता भगवान प्रेम से अपनाते है। और भक्त सुगमता से भवबंधन से मुक्त हो जाते है।

       ..... ✍🏻 : कृष्णा :: श्री राधा प्रेमी :

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