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※══❖═══▩ஜ ۩۞۩ ஜ▩═══❖══※
🌹🌟 राधे नाम संग हरि बोल 🌟🌹
※❖ॐ∥▩∥श्री∥ஜ ۩۞۩ ஜ∥श्री∥▩∥ॐ❖※
🌹🔱⚜💧भगवतार्पणम्💧⚜🔱🌹
🌹 भगवान के शाश्र्वत अंश होते हुए भी जीवात्मा का कर्म व प्रारब्ध में बंधकर चौरासी लाख योनियो में देहांतरण :
प्रिय भगवत्भक्त जन .....
श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है। कि .... इस बद्ध जगत् में सारे जीव मेरे शाश्र्वत अंश हैं । बद्ध जीवन के कारण वे छहों इन्द्रियों के घोर संघर्ष कर रहे हैं, जिसमें मन भी सम्मिलित है ।
ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः |
मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति ||
इस श्लोक में जीव का स्वरूप स्पष्ट है । जीव परमेश्र्वर का सनातन रूप से सूक्ष्म अंश है । ऐसा नहीं है कि बद्ध जीवन में वह एक व्यष्टित्व धारण करता है और मुक्त अवस्था में वह परमेश्र्वर से एकाकार हो जाता है । वह सनातन का अंश रूप है । यहाँ पर स्पष्टतः सनातन कहा गया है । वेदवचन के अनुसार परमेश्र्वर अपने आप को असंख्य रूपों में प्रकट करके विस्तार करते हैं, जिनमें से व्यक्तिगत विस्तार भगवद्तत्व कहलाते हैं और गौण विस्तार जीव कहलाते हैं । दूसरे शब्दों में, भगवद्तत्व निजी विस्तार (स्वांश) हैं और जीव विभिन्नांश (पृथकीकृत अंश) हैं| अपने स्वांश द्वारा वे भगवान् राम, नृसिंह देव, विष्णुमूर्ति तथा वैकुण्ठलोक के प्रधान देवों के रूप में प्रकट होते हैं | विभिन्नांश अर्थात् जीव, सनातन भक्त व सेवक के रूप में होते हैं । भगवान् के स्वांश सदैव विद्यमान रहते हैं । इसी प्रकार जीवों के विभिन्नांशो के अपने स्वरूप होते हैं । परमेश्र्वर के विभिन्नांश होने के कारण जीवों में भी उनके आंशिक गुण पाये जाते हैं, जिनमें से स्वतन्त्रता एक है । प्रत्येक जीव का आत्मा रूप में, अपना व्यष्टित्व और सूक्ष्म स्वातंत्र्य होता है । इसी स्वातंत्र्य के दुरूपयोग से जीव बद्ध बनता है और उसके सही उपयोग से वह मुक्त बनता है । दोनों ही अवस्थाओं में वह भगवान् के समान ही सनातन होता है । मुक्त अवस्था में वह इस भौतिक अवस्था से मुक्त रहता है और भगवान् के दिव्य दर्शन व भक्ति सेवा में निरत रहता है । बद्ध जीवन में प्रकृति के गुणों द्वारा अभिभूत होकर वह भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति को भूल जाता है । फलस्वरूप उसे अपनी स्थिति बनाये रखने के लिए इस संसार में अत्यधिक संघर्ष करना पड़ता है ।
न केवल मनुष्य एवं छोटे से छोटे जीव, अपितु इस भौतिक जगत् के बड़े-बड़े नियन्ता-यथा ब्रह्मादिक तक, परमेश्र्वर के अंश हैं । ये सभी सनातन अभिव्यक्तियाँ हैं, क्षणिक नहीं । कर्षति (संघर्ष करना) शब्द अत्यन्त सार्थक है । बद्धजीव मानो लौह शृंखलाओं से बँधा हो । वह मिथ्या अहंकार से बँधा रहता है और मन इसका मुख्य कारण है जो उसे इस भवसागर की ओर धकेलता है । जब मन सतोगुण में रहता है, तो उसके कार्यकलाप अच्छे होते हैं । जब रजोगुण में रहता है, तो उसके कार्यकलाप कष्टकारक होते हैं और जब वह तमोगुण में होता है, तो वह जीवन की निम्नयोनियों में चला जाता है । जीव अपनी चेतना को निम्न श्रेंणी के जीवों के जैसा बना देता है। तो उसे अगले जन्म में निम्न श्रेंणी का शरीर प्राप्त होता है , जिसका वह भोग करता है | प्रत्येक जीव की चेतना मूलतः जल के समान विमल होती है, लेकिन यदि हम जल में रंग मिला देते हैं, तो उसका रंग बदल जाता है | इसी प्रकार चेतना भी शुद्ध है, क्योंकि आत्मा शुद्ध है लेकिन भौतिक गुणों की संगति के अनुसार चेतना बदलती जाती है | वास्तविक चेतना तो भगवद्भावनामयी है, अतः जब कोई भगवद्भावना में स्थित होता है, तो वह शुद्धतर जीवन बिताता है | लेकिन यदि उसकी चेतना किसी भौतिक प्रवृत्ति से मिश्रित हो जाती है, तो अगले जीवन में उसे वैसा ही शरीर मिलता है | यह आवश्यक नहीं है कि उसे पुनः मनुष्य शरीर प्राप्त हो - वह कुत्ता, बिल्ली, सूकर, देवता या चौरासी लाख योनियों में से कोई भी योनिरूप अपने स्वकर्मो से बने प्रारब्ध व अतिंम स्मृति के आधार पर प्राप्त कर सकता है |
लेकिन यहां यह स्पष्ट है कि बद्धजीव मन तथा इन्द्रियों समेत भौतिक शरीर से आवरित है और जब वह मुक्त हो जाता है तो यह भौतिक आवरण नष्ट हो जाता है । लेकिन उसका आध्यात्मिक शरीर अपने व्यष्टि रूप में प्रकट होता है । माध्यान्दिनायन श्रुति में यह सूचना प्राप्त है -
स वा एष ब्रह्मनिष्ठ इदं शरीरं मर्त्यमतिसृज्य ब्रह्माभिसम्पद्य ब्रह्मणा पश्यति ब्रह्मणा शृणोति ब्रह्मणैवेदं सर्वमनुभवति ।
यहाँ यह बताया गया है कि जब जीव अपने इस भौतिक शरीर को त्यागता है और आध्यात्मिक जगत् में प्रवेश करता है, तो उसे पुनः आध्यात्मिक शरीर प्राप्त होता है, जिससे वह भगवान् का साक्षात्कार कर सकता है । यह उनसे आमने-सामने बोल सकता है और सुन सकता है तथा जिस रूप में भगवान् हैं, उन्हें समझ सकता है । स्मृति से भी यह ज्ञात होता है-
वसन्ति यत्र पुरुषाः सर्वे वैकुण्ठ-मूर्तयः
वैकुण्ठ में सारे जीव भगवान् जैसे शरीरों में रहते हैं । जहाँ तक शारीरिक बनावट का प्रश्न है, अंश रूप जीवों तथा भगवद्मूर्ति के विस्तारों (अंशों) में कोई अन्तर नहीं होता । दूसरे शब्दों में, भगवान् की कृपा से मुक्त होने पर जीव को आध्यात्मिक शरीर प्राप्त होता है। जीव भगवान् का अंश होने के कारण गुणात्मक दृष्टि से भगवान् के ही समान है, जिस प्रकार स्वर्ण के अंश भी स्वर्ण ही होते हैं।
प्रियजन .... भौतिक रूप से देखने मे हमें स्थूल जगत् में ही सब कुछ दिखाई देता है। हम देखते हैं कि चींटी, चीड़िया, उष्ट्र, हाथी आदिकों के बड़े-बड़े देह या छोटे से छोटे जीवों के सूक्ष्मातिसूक्ष्म शरीर सभी का आधार आत्मतत्व ही है। और सभी अपने सूक्ष्म विचारो पर ही उठते, चलते, फिरते, बैठते हैं, तब यह कहने में कोई भी संकोच नहीं रह जाता है कि ब्रह्मादि स्तम्ब-पर्यन्त सभी प्राणियों की जो भी हलचलें है और उन हलचलों से जो भी कार्यसंपन्न होते हैं, सब सूक्ष्म विचार, मन या वृद्धि के ही कार्य हैं।
‘यत्क्रतुर्भवति तत्कर्म कुरुते, यत्कर्म कुरुते तदभिनिष्पद्यते।’
जीव जैसा संकल्प करने लगता है वैसा ही कर्म करता है, जैसा कर्म करता है, वैसा ही बन जाता है। जिन बातों का प्राणी बार-बार विचार करता है, धीरे-धीरे वैसी ही इच्छा हो जाती हे, इच्छानुसारी कर्म और कर्मानुसारिणी गति होती है। अतः स्पष्ट है कि अच्छे कर्म करने के लिये अच्छे विचारों को लाना चाहिये। बुरे कर्मों को त्यागने के पहले बुरे विचारों को त्यागना चाहिए। जो बुरे विचारों का त्याग नहीं करता, वह कोटि-कोटि प्रयत्नों से भी बुरे कर्मों से छुटकारा नहीं पा सकता। और यही अच्छे - बुरे कर्म समय पाकर जीव के प्रारब्ध का निर्माण करते है। जिन्है व्यक्ति जीवन पर्यंन्त भोगता है।
संसार में जीव अपने कर्मानुसार अपनी देहात्मबुद्धि को एक शरीर से दूसरे में उसी तरह ले जाता है, जिस प्रकार वायु सुगन्धि को ले जाता है । इस प्रकार वह एक शरीर धारण करता है और फिर इसे त्याग कर दूसरा शरीर धारण करता है ।
शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्र्वरः |
गृहीत्वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाश्यात् ||
यहाँ पर जीव को ईश्र्वर अर्थात् अपने शरीर का नियामक कहा गया है । यदि वह चाहे तो अपने शरीर को त्याग कर उच्चतर योनि में जा सकता है । इस विषय में उसे थोड़ी स्वतन्त्रता प्राप्त है । शरीर में जो परिवर्तन होता है, वह उस पर निर्भर करता है । मृत्यु के समय वह जैसी चेतना बनाये रखता है, वही उसे दूसरे शरीर तक ले जाती है । यदि वह कुत्ते या बिल्ली जैसी चेतना बनाता है, तो उसे कुत्ते या बिल्ली का शरीर प्राप्त होता है । यदि वह अपनी चेतना दैवी गुणों में स्थित करता है, तो उसे देवता का स्वरूप प्राप्त होता है । और यदि वह भगवद्भावना में होता है, तो वह आध्यात्मिक जगत में भगवान के लोक को जाता है, जहाँ उसका सान्निध्य भगवान से होता है । यह सोच निर्मूल है कि इस शरीर के नाश होने पर सब कुछ समाप्त हो जाता है । जीवात्मा एक शरीर से दूसरे शरीर में देहान्तरण करता है, और वर्तमान शरीर तथा वर्तमान कार्यकलाप ही अगले शरीर का आधार बनते हैं । कर्म के अनुसार भिन्न शरीर प्राप्त होता है और समय आने पर यह शरीर त्यागना होता है । यहाँ यह कहा गया है कि सूक्ष्म शरीर, जो अगले शरीर का बीज वहन करता है, अगले जीवन में दूसरा शरीर निर्माण करता है । एक शरीर से दूसरे शरीर में देहान्तरण की प्रक्रिया तथा शरीर में रहते हुए संघर्ष करने को कर्षति अर्थात् जीवन संघर्ष कहते हैं ।
यहां हमें " प्रारब्ध या कर्म " के संबंध में एक बात याद रखने योग्य है कि जीव या अंगुतक व्यक्ति जो भी भोग रहा है। या उसे जो भी अच्छा - बुरा मिल रहा है। वह सभी प्रारब्धजनित निर्धारित रहता है। और जो कार्य वर्तमान में व्यक्ति के द्वारा स्वयं को "मै" या "स्व:" में स्थित रखकर किया जाता है। वह कर्म है। जो व्यक्ति को मिल रहा होता है। या उसके साथ जो भी अच्छा - बुरा होता है। वह सब उसके पूर्व संचयित कर्मो का फल है। और उसे बदलने का प्राय: व्यक्ति के पास कोई अधिकार नही है। परंतु व्यक्ति के वर्तमान कार्यो को बदलने का या उसे अपनी जीवन शैली को निर्धारित करने का पूर्ण अधिकार व्यक्ति के स्वयं के ऊपर निर्भर है।
प्रियजन हमें अपने सम्पूर्ण दैनिक कर्म भगवान को अर्पण कर प्रेमपूर्वक उनकी भक्ती में मग्न होना चाहिये ... श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार ....
ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्तवा करोति यः।
लिप्यते न स पापेन पद्मपत्र मिवाम्भसा।।
जो पुरुष सब कर्मों को परमात्मा में अर्पण करके और आसक्ति को त्यागकर कर्म करता है, वह पुरुष जल से कमल के पत्ते की भाँति पाप से लिप्त नहीं होता ।
※❖ॐ∥▩∥श्री∥ஜ ۩۞۩ ஜ∥श्री∥▩∥ॐ❖※
🌹۞☀∥ राधेकृष्ण: शरणम् ∥☀۞🌹
※❖ॐ∥▩∥श्री∥ஜ ۩۞۩ ஜ∥श्री∥▩∥ॐ❖※
🌹: कृष्णा : श्री राधा प्रेमी : 🌹
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🌹एक बार प्रेम से बोलिए ...
🌹प्यारी श्री " राधे राधे "🌹💐💐
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श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है। कि .... इस बद्ध जगत् में सारे जीव मेरे शाश्र्वत अंश हैं । बद्ध जीवन के कारण वे छहों इन्द्रियों के घोर संघर्ष कर रहे हैं, जिसमें मन भी सम्मिलित है ।
ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः |
मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति ||
इस श्लोक में जीव का स्वरूप स्पष्ट है । जीव परमेश्र्वर का सनातन रूप से सूक्ष्म अंश है । ऐसा नहीं है कि बद्ध जीवन में वह एक व्यष्टित्व धारण करता है और मुक्त अवस्था में वह परमेश्र्वर से एकाकार हो जाता है । वह सनातन का अंश रूप है । यहाँ पर स्पष्टतः सनातन कहा गया है । वेदवचन के अनुसार परमेश्र्वर अपने आप को असंख्य रूपों में प्रकट करके विस्तार करते हैं, जिनमें से व्यक्तिगत विस्तार भगवद्तत्व कहलाते हैं और गौण विस्तार जीव कहलाते हैं । दूसरे शब्दों में, भगवद्तत्व निजी विस्तार (स्वांश) हैं और जीव विभिन्नांश (पृथकीकृत अंश) हैं| अपने स्वांश द्वारा वे भगवान् राम, नृसिंह देव, विष्णुमूर्ति तथा वैकुण्ठलोक के प्रधान देवों के रूप में प्रकट होते हैं | विभिन्नांश अर्थात् जीव, सनातन भक्त व सेवक के रूप में होते हैं । भगवान् के स्वांश सदैव विद्यमान रहते हैं । इसी प्रकार जीवों के विभिन्नांशो के अपने स्वरूप होते हैं । परमेश्र्वर के विभिन्नांश होने के कारण जीवों में भी उनके आंशिक गुण पाये जाते हैं, जिनमें से स्वतन्त्रता एक है । प्रत्येक जीव का आत्मा रूप में, अपना व्यष्टित्व और सूक्ष्म स्वातंत्र्य होता है । इसी स्वातंत्र्य के दुरूपयोग से जीव बद्ध बनता है और उसके सही उपयोग से वह मुक्त बनता है । दोनों ही अवस्थाओं में वह भगवान् के समान ही सनातन होता है । मुक्त अवस्था में वह इस भौतिक अवस्था से मुक्त रहता है और भगवान् के दिव्य दर्शन व भक्ति सेवा में निरत रहता है । बद्ध जीवन में प्रकृति के गुणों द्वारा अभिभूत होकर वह भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति को भूल जाता है । फलस्वरूप उसे अपनी स्थिति बनाये रखने के लिए इस संसार में अत्यधिक संघर्ष करना पड़ता है ।
न केवल मनुष्य एवं छोटे से छोटे जीव, अपितु इस भौतिक जगत् के बड़े-बड़े नियन्ता-यथा ब्रह्मादिक तक, परमेश्र्वर के अंश हैं । ये सभी सनातन अभिव्यक्तियाँ हैं, क्षणिक नहीं । कर्षति (संघर्ष करना) शब्द अत्यन्त सार्थक है । बद्धजीव मानो लौह शृंखलाओं से बँधा हो । वह मिथ्या अहंकार से बँधा रहता है और मन इसका मुख्य कारण है जो उसे इस भवसागर की ओर धकेलता है । जब मन सतोगुण में रहता है, तो उसके कार्यकलाप अच्छे होते हैं । जब रजोगुण में रहता है, तो उसके कार्यकलाप कष्टकारक होते हैं और जब वह तमोगुण में होता है, तो वह जीवन की निम्नयोनियों में चला जाता है । जीव अपनी चेतना को निम्न श्रेंणी के जीवों के जैसा बना देता है। तो उसे अगले जन्म में निम्न श्रेंणी का शरीर प्राप्त होता है , जिसका वह भोग करता है | प्रत्येक जीव की चेतना मूलतः जल के समान विमल होती है, लेकिन यदि हम जल में रंग मिला देते हैं, तो उसका रंग बदल जाता है | इसी प्रकार चेतना भी शुद्ध है, क्योंकि आत्मा शुद्ध है लेकिन भौतिक गुणों की संगति के अनुसार चेतना बदलती जाती है | वास्तविक चेतना तो भगवद्भावनामयी है, अतः जब कोई भगवद्भावना में स्थित होता है, तो वह शुद्धतर जीवन बिताता है | लेकिन यदि उसकी चेतना किसी भौतिक प्रवृत्ति से मिश्रित हो जाती है, तो अगले जीवन में उसे वैसा ही शरीर मिलता है | यह आवश्यक नहीं है कि उसे पुनः मनुष्य शरीर प्राप्त हो - वह कुत्ता, बिल्ली, सूकर, देवता या चौरासी लाख योनियों में से कोई भी योनिरूप अपने स्वकर्मो से बने प्रारब्ध व अतिंम स्मृति के आधार पर प्राप्त कर सकता है |
लेकिन यहां यह स्पष्ट है कि बद्धजीव मन तथा इन्द्रियों समेत भौतिक शरीर से आवरित है और जब वह मुक्त हो जाता है तो यह भौतिक आवरण नष्ट हो जाता है । लेकिन उसका आध्यात्मिक शरीर अपने व्यष्टि रूप में प्रकट होता है । माध्यान्दिनायन श्रुति में यह सूचना प्राप्त है -
स वा एष ब्रह्मनिष्ठ इदं शरीरं मर्त्यमतिसृज्य ब्रह्माभिसम्पद्य ब्रह्मणा पश्यति ब्रह्मणा शृणोति ब्रह्मणैवेदं सर्वमनुभवति ।
यहाँ यह बताया गया है कि जब जीव अपने इस भौतिक शरीर को त्यागता है और आध्यात्मिक जगत् में प्रवेश करता है, तो उसे पुनः आध्यात्मिक शरीर प्राप्त होता है, जिससे वह भगवान् का साक्षात्कार कर सकता है । यह उनसे आमने-सामने बोल सकता है और सुन सकता है तथा जिस रूप में भगवान् हैं, उन्हें समझ सकता है । स्मृति से भी यह ज्ञात होता है-
वसन्ति यत्र पुरुषाः सर्वे वैकुण्ठ-मूर्तयः
वैकुण्ठ में सारे जीव भगवान् जैसे शरीरों में रहते हैं । जहाँ तक शारीरिक बनावट का प्रश्न है, अंश रूप जीवों तथा भगवद्मूर्ति के विस्तारों (अंशों) में कोई अन्तर नहीं होता । दूसरे शब्दों में, भगवान् की कृपा से मुक्त होने पर जीव को आध्यात्मिक शरीर प्राप्त होता है। जीव भगवान् का अंश होने के कारण गुणात्मक दृष्टि से भगवान् के ही समान है, जिस प्रकार स्वर्ण के अंश भी स्वर्ण ही होते हैं।
प्रियजन .... भौतिक रूप से देखने मे हमें स्थूल जगत् में ही सब कुछ दिखाई देता है। हम देखते हैं कि चींटी, चीड़िया, उष्ट्र, हाथी आदिकों के बड़े-बड़े देह या छोटे से छोटे जीवों के सूक्ष्मातिसूक्ष्म शरीर सभी का आधार आत्मतत्व ही है। और सभी अपने सूक्ष्म विचारो पर ही उठते, चलते, फिरते, बैठते हैं, तब यह कहने में कोई भी संकोच नहीं रह जाता है कि ब्रह्मादि स्तम्ब-पर्यन्त सभी प्राणियों की जो भी हलचलें है और उन हलचलों से जो भी कार्यसंपन्न होते हैं, सब सूक्ष्म विचार, मन या वृद्धि के ही कार्य हैं।
‘यत्क्रतुर्भवति तत्कर्म कुरुते, यत्कर्म कुरुते तदभिनिष्पद्यते।’
जीव जैसा संकल्प करने लगता है वैसा ही कर्म करता है, जैसा कर्म करता है, वैसा ही बन जाता है। जिन बातों का प्राणी बार-बार विचार करता है, धीरे-धीरे वैसी ही इच्छा हो जाती हे, इच्छानुसारी कर्म और कर्मानुसारिणी गति होती है। अतः स्पष्ट है कि अच्छे कर्म करने के लिये अच्छे विचारों को लाना चाहिये। बुरे कर्मों को त्यागने के पहले बुरे विचारों को त्यागना चाहिए। जो बुरे विचारों का त्याग नहीं करता, वह कोटि-कोटि प्रयत्नों से भी बुरे कर्मों से छुटकारा नहीं पा सकता। और यही अच्छे - बुरे कर्म समय पाकर जीव के प्रारब्ध का निर्माण करते है। जिन्है व्यक्ति जीवन पर्यंन्त भोगता है।
संसार में जीव अपने कर्मानुसार अपनी देहात्मबुद्धि को एक शरीर से दूसरे में उसी तरह ले जाता है, जिस प्रकार वायु सुगन्धि को ले जाता है । इस प्रकार वह एक शरीर धारण करता है और फिर इसे त्याग कर दूसरा शरीर धारण करता है ।
शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्र्वरः |
गृहीत्वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाश्यात् ||
यहाँ पर जीव को ईश्र्वर अर्थात् अपने शरीर का नियामक कहा गया है । यदि वह चाहे तो अपने शरीर को त्याग कर उच्चतर योनि में जा सकता है । इस विषय में उसे थोड़ी स्वतन्त्रता प्राप्त है । शरीर में जो परिवर्तन होता है, वह उस पर निर्भर करता है । मृत्यु के समय वह जैसी चेतना बनाये रखता है, वही उसे दूसरे शरीर तक ले जाती है । यदि वह कुत्ते या बिल्ली जैसी चेतना बनाता है, तो उसे कुत्ते या बिल्ली का शरीर प्राप्त होता है । यदि वह अपनी चेतना दैवी गुणों में स्थित करता है, तो उसे देवता का स्वरूप प्राप्त होता है । और यदि वह भगवद्भावना में होता है, तो वह आध्यात्मिक जगत में भगवान के लोक को जाता है, जहाँ उसका सान्निध्य भगवान से होता है । यह सोच निर्मूल है कि इस शरीर के नाश होने पर सब कुछ समाप्त हो जाता है । जीवात्मा एक शरीर से दूसरे शरीर में देहान्तरण करता है, और वर्तमान शरीर तथा वर्तमान कार्यकलाप ही अगले शरीर का आधार बनते हैं । कर्म के अनुसार भिन्न शरीर प्राप्त होता है और समय आने पर यह शरीर त्यागना होता है । यहाँ यह कहा गया है कि सूक्ष्म शरीर, जो अगले शरीर का बीज वहन करता है, अगले जीवन में दूसरा शरीर निर्माण करता है । एक शरीर से दूसरे शरीर में देहान्तरण की प्रक्रिया तथा शरीर में रहते हुए संघर्ष करने को कर्षति अर्थात् जीवन संघर्ष कहते हैं ।
यहां हमें " प्रारब्ध या कर्म " के संबंध में एक बात याद रखने योग्य है कि जीव या अंगुतक व्यक्ति जो भी भोग रहा है। या उसे जो भी अच्छा - बुरा मिल रहा है। वह सभी प्रारब्धजनित निर्धारित रहता है। और जो कार्य वर्तमान में व्यक्ति के द्वारा स्वयं को "मै" या "स्व:" में स्थित रखकर किया जाता है। वह कर्म है। जो व्यक्ति को मिल रहा होता है। या उसके साथ जो भी अच्छा - बुरा होता है। वह सब उसके पूर्व संचयित कर्मो का फल है। और उसे बदलने का प्राय: व्यक्ति के पास कोई अधिकार नही है। परंतु व्यक्ति के वर्तमान कार्यो को बदलने का या उसे अपनी जीवन शैली को निर्धारित करने का पूर्ण अधिकार व्यक्ति के स्वयं के ऊपर निर्भर है।
प्रियजन हमें अपने सम्पूर्ण दैनिक कर्म भगवान को अर्पण कर प्रेमपूर्वक उनकी भक्ती में मग्न होना चाहिये ... श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार ....
ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्तवा करोति यः।
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