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🌹 मैं शरीर नहीं हूँ 🌹

अपनेको शरीर माननेसे ही जन्म-मरण, दु:ख, संताप, चिन्ता आदि सभी आफतें आती हैं। शरीर अपना स्वरूप है नहीं, यह प्रत्यक्ष है। बचपनमें जैसा शरीर था, वैसा अब नहीं है; अब इतना बदल गया कि पहचान नहीं होती, परंतु ‘मैं वही हूँ’—इसमें सन्देहकी कहीं गुंजाइश भी नहीं है। तो कम-से-कम यह विचार करें कि शरीर मैं नहीं हूँ। मैं न स्थूल शरीर हूँ, न सूक्ष्म शरीर हूँ और न कारण शरीर हूँ। स्थूल शरीरकी स्थूल संसारके साथ एकता है—

छिति जल पावक गगन समीरा।  पंच रचित अति अधम सरीरा (मानस ४। ११। २)

अब वह कौन-सा शरीर है, जो इन पाँचोंसे रहित है ? संसारके साथ शरीरकी बिलकुल अभिन्नता है। संसार ‘यह’ नामसे कहा जाता है, फिर उसका एक छोटा-सा अंश ‘मैं’ कैसे हो गया ? ऐसे ही सूक्ष्म शरीरकी सूक्ष्म संसारके साथ एकता है। पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच प्राण, मन, बुद्धि—ये सब सूक्ष्म संसारके ही अंश हैं। यह जो वायु चलता है, इसीके साथ प्राणोंकी एकता है। ऐसे ही सब इन्द्रियों, मन, प्राण, आदिकी एकता है। सब एक ही धातुके हैं। ऐसे ही कारण शरीरकी कारण संसारके साथ एकता है। सूक्ष्म शरीरसे आगे कुछ पता नहीं लगता, ऐसा जो अज्ञान है, वह कारण शरीर है। इसमें प्रकृति (स्वभाव) होती है। प्रकृति सबकी भिन्न-भिन्न होनेपर भी धातु (पञ्चमहाभूत) एक है, ऐसे प्रकृति एक है। सुषुप्तिमें सभी एक हो जाते हैं, भिन्नता रहती ही नहीं। तो इस प्रकार कारण शरीर सब एक ही हुए। अब इसमें यह मैं हूँ और यह मैं नहीं हूँ; यह मेरा है और यह मेरा नहीं है—यह बात सच्ची नहीं है। यह व्यवहरके लिये कामकी है। अपनेको शरीर मानना गलती है। इस गलतीको हम आज मिटा दें तो महान् शान्ति मिल जाय, बड़ा भारी आनन्द मिल जाय। पर सुनकर केवल सीख लेनेसे यह गलती नहीं मिटती। यह शरीर इदंतासे दीखना चाहिये—‘इदं शरीरम्’ (गीता १३। १)। जैसे यह छप्पर अलग दीखता है, ऐसे शरीरका भी अनुभव होना चाहिये कि यह अलग है, मैं इसे जाननेवाला हूँ। इसे सीखना नहीं है। सीखना या मानना ज्ञान नहीं होता। दृढ़ मान्यता भी ज्ञान-जैसी प्रतीत होती है, पर मान्यता मान्यता ही होती है, बोध नहीं। उसका साफ-साफ बोध होना चाहिये। परिवर्तनशील वस्तु मेरा स्वरूप नहीं है—ऐसा अनुभव हो जाय, तो तत्त्वज्ञान हो गया, मुक्ति हो गयी, परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति हो गयी, स्वरूपकी प्राप्ति हो गयी। और वह नित्यप्राप्तकी प्राप्ति है; क्योंकि अपना स्वरूप अप्राप्त हुआ ही कब ? और जो प्रतिक्षण बदलता है, वह कभी किसीको प्राप्त कैसा ? वह कभी किसीको प्राप्त हुआ ही नहीं। प्राप्त तो स्वरूप ही है। परंतु अप्राप्तको प्राप्त माननेसे जो प्राप्त है, वह अप्राप्त जैसा हो

 गया। जबतक अप्राप्तको अप्राप्त नहीं मानेंगे तबतक प्राप्तकी प्राप्ति नहीं दीखेगी। सुनकर सीख लेने और मान लेनेका नाम ज्ञान नहीं है। ज्ञान ऐसी चीज नहीं है। ज्ञान तो एकदम, उसी क्षण होता है। उसमें अभ्यास नहीं है। अभ्यास करना उपासना है। उपासना उपासना ही है, बोध नहीं। शरीर मैं हूँ—ऐसा दीखनेपर बेचैनी हो जाय तो बोध हो जायगा। जैसे नींदमें पड़े हुए आदमीको सूई चुभाई जाय, तंग किया जाय तो चट नींद खुल जाती है। ऐसे ही अपनेको शरीर माननेका दु:ख, जलन पैदा हो जाय कि क्या करूँ ? कैसे करूँ ? यह अभ्यास कैसे मिटे ? तो फिर यह मिट जायगा। जो चीज मिटती है, वह होती नहीं और जो चीज होती है, वह मिटती नहीं—‘नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सत:।’ (गीता २। १६) शरीरमें मैं-पन और मेरा-पन मिटता है, तो मूलमें है नहीं—यह पक्की बात है।

सबसे पहले साधकको दृढ़ताके साथ यह मानना चाहिये कि ‘शरीर मैं हूँ और यह मेरा है’ यह बिलकुल झूठी बात है। हमारी समझमें नहीं आये, बोध नहीं हो, तो कोई बात नहीं। पर शरीर ‘मैं नहीं हूँ’ और ‘मेरा नहीं है, नहीं है, नहीं है’—ऐसा पक्का विचार किया जाय, जोर लगाकर। जोर लगानेपर अनुभव नहीं होगा, तब वह व्याकुलता, बेचैनी पैदा हो जायगी, जिससे चट बोध हो जायगा।

शरीर मैं नहीं हूँ—इस बातमें बुद्धि भले ही मत ठहरे, आप ठहर जाओ ! बुद्धि ठहरना या नहीं ठहरना कोई बड़ी बात नहीं है। यह मैं नहीं हूँ—यह खास बात है। ‘अहं ब्रह्मास्मि’ ‘मैं ब्रह्म हूँ’—यह इतना जल्दी लाभदायक नहीं है, जितना ‘यह मैं नहीं हूँ’ यह लाभदायक है। दोनों तरहकी उपासनाएँ हैं; परंतु ‘यह मैं नहीं हूँ’ इससे चट बोध होगा। लेकिन खूब विचार करके पहले यह तो निर्णय कर लो कि शरीर ‘मैं’ और ‘मेरा’ कभी नहीं हो सकता। ऐसा पक्का, जोरदार विचार करनेपर अनुभव नहीं होनेसे दु:ख होगा। उस दु:खमें एकदम शरीरसे सम्बन्ध-विच्छेद करनेकी ताकत है। वह दु:ख जितना तीव्र होगा, उतना ही जल्दी काम हो जायगा।

 ‘मैं क्या हूँ ?’ ऐसा विचार मत करो। इसमें मन-बुद्धि साथमें रहेंगे। जडक़ी सहायताके बिना ‘मैं क्या हूँ ?’ ऐसा प्रश्न उठ ही नहीं सकता, और समाधान भी जडक़ो साथ लिये बिना कर ही नहीं सकते। इसलिये जडक़ी सहायतासे जडक़ी निवृत्ति एवं चिन्मयताकी प्राप्ति नहीं होती, नहीं होती, नहीं होती। ‘मैं चिन्मय हूँ’ इसमें बुद्धिकी सहायता है और अहंता भी साथमें रहेगी ही। पर ‘यह जड़ मैं नहीं हूँ, नहीं हूँ, नहीं हूँ’ तो इसमें जड़तापर ‘नहीं’ का जोर लगेगा। चिन्तन भी जड़ताका है और निषेध भी जड़ताका है। तो जैसे झाड़ू और कूड़ा-करकट एक धातुके हैं, और झाड़ूसे कूड़ा-करकट साफ करके झाड़ू भी बाहर फेंक दिया जाय, तो साफ मकान पीछे रह जायगा, उसके लिये उद्योग नहीं करना पड़ेगा, ऐसे ही जड़ताके द्वारा जड़ताकी निवृत्ति करनेपर ब्रह्म पीछे रह जाता है, उस-(ब्रह्म-)के लिये उद्योग नहीं करना पड़ता। बिना प्रकृतिकी सहायता लिये उद्योग होता ही नहीं।

‘मैं यह नहीं हूँ’—इसमें ‘मैं’ और ‘यह’ एक जातिके हैं। यह जो ‘मैं’ है, यह दो तरफ जाता है। एक ‘मैं’ जड़ताकी तरफ जाता है और एक ‘मैं’ चेतनताकी तरफ जाता है। चेतनताकी तरफ ‘मैं’ माननेसे (कि ‘मैं चिन्मय हूँ’) जड़ताका ‘मैं’ मिटेगा नहीं और जड़ताकी तरफ ‘मैं’ माननेसे (कि ‘मैं यह नहीं हूँ’) स्वत: रहेगा। इसलिये साधकके लिये ‘मैं यह हूँ’ कि अपेक्षा ‘मैं यह नहीं हूँ’ बहुत ज्यादा उपयोगी है।

मैंने दोनों तरहकी बातें पढ़ी हैं और उनपर गहरा विचार किया है। इसलिये मैं अपनी धारणा कहता हूँ। आपको नहीं जँचे तो आप जैसा चाहें करें। पर निषेधात्मक साधनसे स्वरूपमें स्थिति जितनी जल्दी होती है, उतनी जल्दी विध्यात्मक साधनसे नहीं होती। ऐसे ही दुर्गुण-दुराचारोंका त्याग किया जाय, तो सद्गुण-सदाचार जल्दी आयेंगे। जैसे ‘मैं सत्य बोलूँगा’ इस बातमें जितना अभिमान रहेगा, उतना ‘मैं झूठ नहीं बोलूँगा’ इसमें अभिमान नहीं रहेगा। झूठ नहीं बोलकर कौन-सा बड़ा भारी काम कर लिया, और सत्य बोलकर बड़ा भारी काम कर लिया—ऐसा भाव रहेगा ! इसलिये सत्य बोलनेका अभिमान जल्दी टूटेगा नहीं।

बुद्धि साथमें रहनेपर जड़तासे सम्बन्ध-विच्छेद हो ही नहीं सकता; क्योंकि जिससे सम्बन्ध-विच्छेद करना है, उस-(शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि-)को ही साथ ले लिया ! इस तरफ विचार न करनेसे ही बहुत वर्ष लग जाते हैं। साधक सोचता रहता है, चिन्तन करता रहता है और स्थिति वहीं-की-वहीं रहती है। जैसे कोल्हूका बैल उम्रभर चलता है, पर वहीं-का-वहीं रहता है, वैसी दशा रहती है साधककी ! इसलिये इस विषयपर खूब गहरा विचार करनेकी आवश्यकता है।

    ........ ✍🏻 🌹 संत प्रसादम्  🌹

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