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🌹भगवत्प्राप्तिके चार साधनोंकी सुगमताका रहस्य :

ज्ञानयोग, ध्यानयोग, भक्तियोग और कर्मयोग आदि साधन करनेके विषयमें उपनिषद्, ब्रह्मसूत्र, योगदर्शन, श्रीमद्भागवत और गीता आदि शास्त्रोंको देखनेपर अधिकांश मनुष्योंको चित्तमें अनेक प्रकारकी शङ्काएँ उठा करती हैं और किसी-किसीके चित्तमें तो ङ्क्षककर्तव्यविमूढ़ताका-सा भाव आ जाता है।

उपनिषद् और ब्रह्मसूत्रको देखकर जब वेदान्तके सिद्धान्तके अनुसार साधक जगत्को स्वप्नवत् समझता हुआ सम्पूर्ण सङ्कल्पोंका यानी स्फुरणामात्रका और जिन वृत्तियोंसे संसारके चित्रोंका अभाव किया, उनका भी त्याग करके केवल एक सच्चिदानन्दघन परमात्माके स्वरूपमें अभेदरूपसे नित्य-निरन्तर स्थित रहनेका अभ्यास करता है, तब आलस्यके कारण चित्तकी वृत्तियाँ मायामें विलीन हो जाती हैं और साधक कृतकार्य नहीं होने पाता। ऐसी अवस्थामें विचारवान् पुरुष भी चिन्तातुर-सा हो जाता है। बहुत-से जो इस तत्त्वको नहीं जानते हैं वे तो इस लय-अवस्थाको ही समाधि समझकर अपनी ब्रह्ममें स्थिति मान बैठते हैं। उस सुषुप्तिका जो तामस सुख है उसको ही वे ब्रह्मप्राप्तिका

सुख मानकर गाढ़ निद्रामें अधिक सोना ही पसंद करते हैं। जो इस प्रकार भ्रमसे निद्रासुखको मानते हुए विशेष समय सोनेमें ही बिता देते हैं, अज्ञानके कारण उनका जीवन नष्टप्राय हो जाता है। किन्तु जो विवेकशील इस निद्राके सुखको तामस सुख मानते हुए इस लयदोषसे अपनेको बचाना चाहते हैं, वे भी बलात् आलस्य और निद्राके शिकार बन जाते हैं। अतएव इनको क्या करना कर्तव्य है ?

जब साधक योगदर्शनके अनुसार एकान्तमें बैठकर ध्यानयोगद्वारा चित्तकी वृत्तियोंके निरोधरूप समाधि लगानेकी चेष्टा करता है तब विक्षेप और आलस्यदोषके कारण चित्त उकता जाता है। उनमें भी आलस्य तो इतना घेर लेता है कि साधक तंग आ जाता है। आलस्यमें स्वाभाविक ही आराम प्रतीत होता है, इससे साधकका स्वभाव तामसी बनकर उसे साधनसे गिरा देता है बुद्धि और विवेकद्वारा आलस्यको हटानेके लिये साधक अनेक प्रकारसे प्रयत्न करता है। भोजन भी सात्त्विक और अल्प करता है। आसन लगाकर भी बैठता है। विशेष शारीरिक परिश्रम भी नहीं करता। रोगनिवृत्तिकी भी चेष्टा करता रहता है। समयपर सोनेकी चेष्टा रखता है। इस प्रकार प्रयत्न करनेपर भी मनुष्यको आलस्य दबा लेता है। इसलिये साधक कृतकार्य हो नहीं पाता और ङ्क्षककर्तव्यविमूढ़-सा हो जाया करता है। ऐसी अवस्थामें उसे क्या करना चाहिये ?

कितने ही जो श्रीमद्भागवतमें बतायी हुई नवधा भक्तिके अनुसार जप, स्तुति, प्रार्थना, ध्यान, सेवा-पूजा, नमस्कार आदि करते हुए अपने समयको बिताते हैं, उन लोगोंको भी जैसा आनन्द आना चाहिये वैसा आनन्द नहीं आता और उनका चित्त साधनसे ऊब जाता है। तथा अकर्मण्यता बढ़ जाती है। एवं कितने ही लोग भगवान्की रासलीलाको देखकर प्रसन्न होते हैं; किन्तु उनमें भी झूठ, कपट, हँसी, मजाक, विलासिता आदि दोष देखनेमें आ जाते हैं।

दूसरे जो गीतोक्त भक्तियुक्त कर्मयोगकी दृष्टिसे अपनी बुद्धिके अुनसार स्वार्थ, आराम और आसक्तिको त्याग कर लोकोपकारकी बुद्धिसे लोकसेवारूप निष्काम कर्मका साधन करते हैं, उनके चित्तमें भी अनेक प्रकारकी स्फुरणाएँ और विक्षेप होते हैं, इससे उनको बड़ा झंझट-सा प्रतीत होने लगता है और भगवत्की स्मृति भी काम करते हुए निरन्तर नहीं होती, अत: उनके चित्तमें उकताहट पैदा हो जाती है। न कर्मयोगकी सिद्धि होती है और न काम करते हुए भजन-ध्यानरूप ईश्वरभक्ति ही बनती है; इसलिये वे तंग आकर यज्ञ, दान, तप, सेवा आदि उस लोकोपकाररूप शुभ कर्मोंको स्वरूपसे ही छोडऩेकी इच्छा करने लगते हैं। जब एकान्तमें जाकर ध्यान करने बैठते हैं तब आलस्य आने लगता है, इसलिये वे भी ङ्क्षककर्तव्यविमूढ़-से हो जाते हैं। ऐसी परिस्थितमें कैसे क्या करना चाहिये ?

इसी प्रकार और भी परमात्माकी प्राप्तिके जितने साधन शास्त्रोंमें बतलाये हैं तथा महात्मालोग बतलाते हैं उन सभी साधनोंको करनेवाले साधकोंको कार्यकी सिद्धि कठिन-सी प्रतीत होती है। किन्तु बहुत-से महात्मा और शास्त्र साधनोंको सहज और सुगम बतलाते हैं एवं उनका परिणाम भी सर्वोत्तम बतलाते हैं तथा विचारनेपर युक्तियोंसे भी यह बात ऐसी ही समझमें आती है। फिर भी उपर्युक्त साधन उन्हें सुगम क्यों नहीं प्रतीत होते तथा सभी पुरुष प्रयत्न क्यों नहीं करते; क्योंकि सभी क्लेश, कर्म और दु:खोंसे रहित होकर सुख- शान्ति प्राप्त करना चाहते हैं। फिर वे कृतकार्य नहीं होते—इसका क्या कारण है? ऐसे-ऐसे बहुतसे प्रश्र साधकोंकी ओरसे आते हैं; अत: इनपर कुछ बिचार किया जाता है।

देहाभिमान रहनेके कारण तो ज्ञानयोगमें और आलस्यके कारण ध्यानयोगमें तथा तत्त्व और रहस्यको न जाननेके कारण भक्तियोगमें एवं स्वार्थ- बुद्धि होनेके कारण कर्मयोगमें कठिनता प्रतीत होती है, पर वास्तवमें कठिनता नहीं है।

परमात्माकी प्राप्तिके सभी साधन सुगम होनेपर भी सुगम माननेसे सुगम हैं और दुर्गम माननेसे दुर्गम हैं। श्रद्धापूर्वक तत्त्व और रहस्य समझकर साधन करनेसे सभी साधन सुगम हो सकते हैं। इनमें भी भक्तिसहित कर्मयोग या केवल भगवान्की भक्ति सबके लिये बहुत ही सुगम है।

किन्तु प्राय: सभी मनुष्य अज्ञानके कारण आलस्य, भोग और प्रमादके वशीभूत हो रहे हैं। इसलिये परमात्माकी प्राप्तिके साधनोंके तत्त्व, रहस्य और प्रभावको नहीं जानते। अत: उन्हें ये सब कठिन प्रतीत होते हैं तथा इसी कारण उनमें श्रद्धा और प्रेमकी कमी रहती है। और इसीसे सभी लोग साधनमें नहीं लगते।

शास्त्रोंमें जो अनेक उपाय बतलाये हैं वे अधिकारीके भेदसे सभी ठीक हैं; किन्तु इस तत्त्वको न जाननेके कारण साधक कभी किसी साधनमें लग जाता है और कभी किसीमें। बहुत-से तो इस हेतुसे कृतकार्य नहीं होते और बहुत-से अपनेको क्या करना कर्तव्य है इस बातको न समझकर अपनी योग्यताके विपरीत साधनका आरम्भ कर देते हैं—इस कारण भी कृतकार्य नहीं होते और कितने ही विवेकी पुरुष अपनी योग्यताके अनुसार कार्य करते हुए भी उसका तत्त्व और रहस्य न जाननेके कारण अहंता, ममता, अज्ञान, राग-द्वेष, संशय, भ्रम,अश्रद्धा आदि स्वभावदोष तथा पूर्वसञ्चित पाप और कुसंगके कारण शीघ्र कृतकार्य नहीं होने पाते। इसलिये उन पुरुषोंको महात्माओंका संग करके उपर्युक्त ज्ञानयोग, ध्यानयोग, भक्तियोग और कर्मयोग आदिका तत्त्व-रहस्य समझकर अपनी रुचि और अधिकारके अनुसार महात्माके बतलाये हुए किसी एक साधनको विवेक, वैराग्य और धैर्ययुक्त बुद्धिसे आजीवन करनेका निश्चय करके उसी साधनके लिये तत्परताके साथ प्राणपर्यन्त चेष्टा करनी चाहिये। इस प्रकार श्रद्धा-भक्तिपूर्वक साधन करनेसे साधकके सम्पूर्ण दुर्गुणोंका, पापोंका और दु:खोंका मूलसहित नाश हो जाता है। एवं वह कृतकृत्य होकर सदाके लिये परमानन्द और परम शान्तिको प्राप्त हो जाता है।

ज्ञानयोगका साधन देहाभिमानसे रहित होकर करना चाहिये। सच्चिदानन्द परमात्मामें अभेदरूपसे स्थित होकर व्यवहारकालमें तो सम्पूर्ण दृश्यवर्गको ‘गुण ही गुणोंमें बर्त रहे हैं अर्थात् इन्द्रियाँ अपने अर्थोंमें बर्त रही हैं’—ऐसा मानकर उन सारे पदार्थोंको मृगतृष्णाके जल या स्वप्नके सदृश अनित्य समझना चाहिये। और ध्यानकालमें वृत्तियोंसहित सम्पूर्ण पदार्थोंके संकल्पोंका त्याग करके केवल एक नित्य विज्ञानरूप परमात्मामें ही अभेदरूपसे स्थित होना चाहिये। ऐसी अवस्थामें चिन्मय (विज्ञानमय)का लक्ष्य न रहनेके कारण स्वाभाविक आलस्यदोषसे लयवृत्ति हो जाती है अर्थात् मनुष्यकी तन्द्रा-अवस्था हो जाती है। इसलिये ध्यानावस्थामें केवल ज्ञानकी दीप्ति यानी चेतनताकी बहुलता रहना अत्यावश्यक है। क्योंकि जहाँ ज्ञान है, वहाँ अज्ञान और अज्ञानके कार्यरूप निद्रा, आलस्य और लय आदि दोषोंका रहना सम्भव नहीं। इस रहस्यको जाननेवाले वेदान्तमार्गी विवेकी पुरुष निद्रा और आलस्यके शिकार न बनकर कृतकृत्य हो जाते हैं।

पातञ्जलयोगदर्शनके अनुसार साधन करनेवालोंको भी आत्म- साक्षात्कारके लिये केवल चितिशक्ति अर्थात् गुणोंसे रहित केवल चेतनका ही ध्यान रखना चाहिये। इस प्रकार जहाँ केवल चेतनका ही लक्ष्य रहता है वहाँ जैसे सूर्यके पास अन्धकार नहीं आ सकता वैसे ही उनके पास भी निद्रा- आलस्य नहीं आ सकते। अतएव इनको भी युक्त आहार, निद्रा और आसन आदिका पालन करते हुए विशेषरूपसे विज्ञानमय चेतनताकी तरफ ही लक्ष्य रखना चाहिये। इस प्रकार उस शुद्ध निरतिशय ज्ञानमय परमेश्वरके स्वरूपका ध्यान करनेसे सम्पूर्ण विघ्रोंका नाश हो जाता है साधक कृतार्थ हो जाता है।

                    ....... संत वचनामृतम्

( शेष आगे के ब्लॉग में )

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