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 🌹*जीवमात्र में परमात्मा की सत्ता* 🌹

प्रिय भगवत्जन .....

   आपके प्रश्नानुसार कि .... अगर जीवमात्र में भगवान का वास है। तो समस्त जीवों को अलग अलग नाम, रूप व कर्म से क्यों जाना जाता है। जीव स्वयं को काम, क्रोध , मद , मोह और लौभादिक से गृसा क्यों पाता है। और अपने कर्मानुसार बने प्रारब्ध द्वारा अच्छा बुरा फल क्यों पाता है। अगर समस्त ब्रम्हांड में भगवान की ही सत्ता है। और उनकी इच्छा के बिना पत्ता भी नहीं हिलता तो फिर जीव स्वयं कोई भी कर्म करने में कैसे सक्षम है ?

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प्रिय भगवत्जन ...

महाभूतान्यहंकारो बुद्धिरव्यक्तमेव च।
इन्द्रियाणि दशैकं च पंच चेन्द्रियगोचराः।।
इच्छा द्वेषः सुखं दुःखं संघातश्चेतना धृतिः।
एतत्क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतम्।।

पाँच महाभूत, अहंकार, बुद्धि और मूल प्रकृति भी तथा दस इन्द्रियाँ, एक मन और पाँच इन्द्रियों के विषय अर्थात् शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध तथा इच्छा, द्वेष, सुख-दुःख, स्थूल देह का पिण्ड, चेतना और धृति – इन सभी गुंण - विकारों से जीवों के शरीरों का निर्माण होता है। और इन सभी जीवो में परमात्मा आत्मतत्व के रूप में चैतन्य है। यहां ध्यान देने योग्य बात यह है। कि परमात्मा आत्मतत्व से सभी में चैतन्य है। परंतु स्वयं प्रकट नहीं है। इसी वजह से जीवमात्र में होते हुए भी वह जीव के रूप, रंग व कर्म से निर्लिप्त रहता है जैसे कि दुग्ध में घृत है। परंतु दृश्य नहीं होता और दुग्ध से बने किसी भी व्यंजन में घृत का नाम नहीं रहता परंतु घृत का अंश व स्वाद हर व्यंजन में रहता है। जैसे कि हमें दुग्ध से घृत निकालने के लिए यत्न करना पडता है। ( घृत निकालने के लिए दुग्ध को पहले गर्म करते है। फिर उसे दही के रूप में जमाया जाता है। , तदोपरांत मथने के पश्चात निकले हुए मख्खन को गर्म करने पर हमें घृत की प्राप्ती होती है। ) उसी तरह हमें स्वयं में परामात्मा के आत्मतत्व की प्राप्ती के लिए भगवत्भक्ती रूपी लगन में खुद को गर्म करना पडता है। "मै" रूप स्थापित स्व: कर्मो को जमाना पडता है। , दुविधाओं व विचारो का मंथन करना पडता है। तदोपरान्त स्वयं में प्रकट हुए निस्वार्थ भगवत्प्रेम की दाहकता में हमें आत्मा रूपी परमात्मा की प्राप्ती होती है। अत: स्पष्ट है। कि जीवमात्र में सदृश्य रहते हुए भी आत्मरूपी परमात्मा जीव के कर्मो से निर्लिप्त रहता है। व दृश्य नही होता है। जीव अपने कर्मो का भोगी स्वयं ही होता है।

जीवों के हमें विभिन्न रूप , रंग व आकार इसलिए दर्शित होते है। क्योकि बिना विविधता के दुनिया में कोई रंग ही नही रह जाएगा दुनिया रस हीन फीकी प्रतीत होने  लगगी और दुनिया में रहने वाले जीवों का जीवन नीरस हो जाएगा जरा सोचिये ! अगर विविध फल या व्यंजन ना होते हुए अगर एक ही फल या व्यंजन होता तो क्या हमें विभिन्न स्वादों का ज्ञान होता या मान लीजिए फूल या वस्त्रादिक विभिन्न रंगो के ना होकर एक ही रंग के होते तो क्या हमें उन्हैं उपयोग करनें में उतनी प्रसन्नता होती ? नही ना ! इसी वजह से जैसे दुनिया में नए-नए रंग व नए-नए स्वादों की आवष्यकता को देखते हुए इन सभी की रचना हुई इसी तरह विभिन्न जीवों की अलग अलग उपयोगिता देखते हुए उनके नाम , रूप व रंग की रचना परमात्मा द्वारा की गई।

       आपके प्रश्नानुसार ... जड या चेतन समस्त जीवमात्र पर भगवान की सत्ता है। भगवत्ईच्छा बिना पत्ता भी नही हिलता परंतु फिर भी जीव अच्छे या बुरे कर्मो को करने में इसलिए समर्थ है। क्योकि जीव का जीवन कर्म बिना तो संभव ही नही ! यथा !...

न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः।।

निःसंदेह कोई भी मनुष्य किसी काल में क्षणमात्र भी बिना कर्म किये नहीं रहता, क्योंकि सारा मनुष्य समुदाय प्रकृति जनित गुणों द्वारा परवश हुआ कर्म करने के लिए बाध्य किया जाता है |

इसलिए कर्म करना अगर अनिवार्य ही है। तो शास्त्रोक्त कर्म करने चाहिये। यथा !....

नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्धयेदकर्मणः।।

तू शास्त्रविहित कर्तव्य कर्म कर, क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है तथा कर्म न करने से तेरा शरीर निर्वाह भी सिद्ध नहीं होगा |

  अत:जीवमात्र के लिए जीवनयापन को संभव करने के लिए कर्म करना अनिवार्य है। तब फिर प्रश्न उठता है। कि अगर जीव कर्म करने में मुक्त है तो परमात्मा की सत्ता कैसे जीवमात्र पर संभव है। यहां ध्यान देने योग्य बात यह है। कि जीव अपने कर्मो को करने के लिए मुक्त है। लेकिन प्रारब्ध भोग में नहीं यानी जीव जो कार्य स्वयं करता है। उसमें वह कार्य करने के लिए मुक्त है। लेकिन किये हुए कार्यो के फलाभोग के लिए अवधि उपरांत प्रारब्धभोग में परमात्मा की सत्ता विद्यमान है उनकी इच्छा के बिना पत्ता भी नही हिलता ।

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