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  🌹 *निस्वार्थ प्रेम से भगवद्प्राप्ति* 🌹

🌟 निस्वार्थ भगवत्प्रेम से भगवत्प्राप्ति :

प्रिय भगवत्जन .....

प्रेम हरि कौ रूप है, त्यौं हरि प्रेम सरूप ।
एक होइ द्वै यौं लसे ज्यौं सूरज और धूप ।।

जब मनुष्य अपने प्यारे सांवरे के प्रेम रंग में रंग जाता है तब वह प्रेममय हो जाता है, उस समय प्रेम ( भक्ती ) प्रेमी ( भक्त ) और प्रेमास्पद ( भगवान ) तीनों एक ही रूप में परिणित होकर एक ही बन जाते है। प्रेमी , प्रेम और प्रेमास्पद कहने के लिए ही तीन है। परंतु वास्तव में एक ही वस्तु के तीन रूप है। जैसे कि जल के हमें तीन ( वाष्प , बर्फ व तरल ) अलग - अलग रूप देखने को मिलते है परंतु वास्तव में तीनों एक ही है।

प्रेमी के जीवन की प्रत्येक चेष्टा सहज ही प्रेमास्पद के लिए प्रित्यर्थ होती है। जो प्रेमास्पद के लिए प्रतिकूल हो वही अविधि और जो प्रेमास्पद के अनुकूल हो यही विधी है। यही प्रेम जगत का विधी निषेध है। वस्तुत: वहां सब कुछ प्यारे सांवरे के मन का ही होता है। क्योकि जहाँ अन्तरङ्गता होती है। वहां प्रेमास्पद के मन की भावना प्रेमी के मन में आना स्वाभाविक है।

प्रिय भगवत्जन अधिकतर भक्तजन प्यारे के सच्चे प्रेम से अनभिज्ञ रहते है। जैसे कि -

प्रेम प्रेम सब कोइ कहे, प्रेम ना चीन्हे कोय ।
जेहि प्रेमहिं साहिब मिले, प्रेम कहावे सोय ।।

भगवान का सच्चा प्रेमी भगवान के अतिरिक्त और किसी भी वस्तु का चिन्तन नही करता है। यहां तक कि भगवान का चिन्तन भी वह भगवान के प्रेम के लिए ही करता है। प्रेम के सिवा ना तो वह कुछ भगवान से ही चाहता है। और ना ही भगवान के किसी प्रेमी भक्त से । प्रेमी भक्त को अपनी समस्त इच्छाओं ( कामनाओं ) को त्यागकर सिर्फ अपने प्यारे प्रेमास्पद में ही मन लगाना चाहिये! यथा -

मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय।
निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशयः।।

मुझमें मन को लगा और मुझमें ही बुद्धि को लगा। इसके उपरान्त तू मुझमें निवास करेगा, इसमें कुछ भी संशय नहीं है।

 प्यारे .... सच्चा प्रेम तो वही है। जिसमें प्रियतम् प्रभू का मिलना हो जाए । और प्रियतम प्रभू मिलते है। प्रेम भरी हृदय की व्याकुलता से, करुणापूर्ण हृदय की उत्कट इच्छा से! प्रेमी जब अपने प्रेमास्पद के विरह में व्याकुल होता है। तो पल पल उसे अपने प्रेमास्पद के आने की आहट ही सुनाई देती है। बराबर उसकी छवि आँखो में दिखाई देती है। कोई भी आ रहा हो पर उसे यही प्रतीत होता है कि उसका प्राणप्रियतम् ही आ रहा है।

जब तक भक्त के अंदर "मैं" है तब तक वह पूर्ण प्रेमत्व को नही पा सकता है। और जब तक प्रेमी का प्रेम सच्चा ना हो , पूर्ण ना हो तब तक प्रेमी को प्रेमास्पद की प्राप्ती नही होती है। प्रेमी भक्त को प्रेम के पूर्णत्व के लिए स्व:तत्व से जुडी कामनाओं का त्याग करना होगा तभी प्रेमी अपने प्रिय प्रेमास्पद को पूर्णतया पा सकता है। यथा -

जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि है मैं नाहि ।
प्रेम गली अति सांकरि ता में दो ना समाहि ।।

 प्रेमी अपने जीवन को जब प्रेमास्पद के प्रेम में पूर्णतया रंग लेता है। तो निस्वार्थ परिपक्व प्रेम से प्रेमियों की पवित्र प्रेमाग्नि में भोग-मोक्ष की सारी कामनाएँ, संसार की सारी आसक्तियाँ और ममताएँ सर्वथा जलकर भस्म हो जाती हैं। उनके द्वारा सर्वस्व का त्याग सहज स्वाभाविक होता है। किसी भी प्रकार की सिद्धी व किसी भी प्रकार की मुक्ती का उन्हें लोभ नही रहता है। अपने प्राणप्रियतम प्रभु को समस्त आचार अर्पण करके वे केवल नित्य-निरन्तर उनके मधुर स्मरण को ही अपना जीवन बना लेते हैं। उनका वह पवित्र प्रेम सदा बढ़ता रहता है’ क्योंकि वह न कामनापूर्ति के लिये होता है न गुणजनित होता है। उसका तार कभी टूटता ही नहीं, सूक्ष्मतर रूप से नित्य-निरन्तर उसकी अनुभूति होती रहती है और वह प्रतिक्षण नित्य-नूतन मधुर रूप से बढ़ता ही रहता है। उसका न वाणी से प्रकाश हो सकता है, न किसी चेष्टा से ही उसे दूसरे को बताया जा सकता है।

प्रेमियों के इस पवित्र प्रेम में इन्द्रिय-तृप्ति, वासना सिद्धि, भोग-लालसा आदि को स्थान नहीं रहता। बुद्धि, मन, प्राण, इन्द्रियाँ— सभी नित्य-निरन्तर परम प्रियतम प्रभु के साथ सम्बन्धित रहते हैं। मिलन और वियोग— दोनों ही नित्य-नवीन रसवृद्धि में हेतु होते हैं। ऐसा प्रेमी केवल प्रेम की ही चर्चा करता है, प्रेम की चर्चा सुनता है, उसे सर्वत्र प्रेम ही प्रेम दिखाई देता है। वह हर शब्द - वाणी में भगवद्प्रेम रस का अनुभव करता है वह प्रेम का ही मनन करता है, प्रेम में ही संतुष्ट रहता और प्रेम में ही नित्य रमण करता है।

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 🌹۞☀∥ राधेकृष्ण: शरणम् ∥☀۞🌹
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  🌹: कृष्णा : श्री राधा प्रेमी : 🌹          
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🌹एक बार प्रेम से बोलिए ...
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