🚩🔱 ❄ «ॐ»«ॐ»«ॐ» ❄ 🔱🚩
※══❖═══▩ஜ ۩۞۩ ஜ▩═══❖══※
🌹🌟 राधे नाम संग हरि बोल 🌟🌹
※❖ॐ∥▩∥श्री∥ஜ ۩۞۩ ஜ∥श्री∥▩∥ॐ❖※
🌹🔱 *पाप-पुण्य व जन्म-मरण* 🔱🌹
💐 प्रिय भगवत्जन .....
आपके प्रश्नानुसार व्यक्ति पाप-पुण्य और जन्म-मरणादिक चक्र में पडकर और स्वकर्मो को अपने ऊपर आरोपित करके दुखी: क्यो हो जाता है। इससे निकलने का क्या उपाय है? एवं हम प्राय:देखते है। कि किसी अच्छी घटना पर लोग कहते है। कि ये पूर्व में किये गए सु:कर्मो का पुण्यफल है। और किसी भी अनापेक्षित या दुख:द घटना पर प्राय: सुनने को मिलता है। कि ये पूर्व में किये गए कु:कर्मो का फल है। अब अगर व्यक्ति द्वारा यंही प्रथ्वी लोक पर ही पाप-पुण्यों का फला:भोग होता है। तो गरुण पुराण में कर्मो के फला:भोग के लिए स्वर्ग-नर्क का वर्णन क्यों है। क्या ये प्राणीमात्र को कु:कर्मो के अनुशरण से बचाने के लिए भ्रमना मात्र है?
प्रिय भगवत्जन ...
शास्त्र कहते हैं कि पुरुष क्रतुमय है। अतएव-
‘यत्क्रतुर्भवति तत्कर्म कुरुते, यत्कर्म कुरुते तदभिनिष्पद्यते।’
पुरुष जैसा संकल्प करने लगता है वैसा ही कर्म करता है, जैसा कर्म करता है, वैसा ही बन जाता है। जिन बातों का प्राणी बार-बार विचार करता है, धीरे-धीरे वैसी ही इच्छा हो जाती हे, इच्छानुसारी कर्म और कर्मानुसारिणी गति होती है। अतः स्पष्ट है कि अच्छे कर्म करने के लिये अच्छे विचारों को लाना चाहिये। बुरे कर्मों को त्यागने के पहले बुरे विचारों को त्यागना चाहिए। जो बुरे विचारों का त्याग नहीं करता, वह कोटि-कोटि प्रयत्नों से भी बुरे कर्मों से छुटकारा नहीं पा सकता। और यही अच्छे - बुरे कर्म समय पाकर जीव के प्रारब्ध का निर्माण करते है। जिन्है व्यक्ति जीवन पर्यंन्त भोगता है। अत: अगर व्यक्ति को कर्मो की अच्छाई या बुराई से निकलना है। तो अपने मन से दु:सह कर्मो की सत्ता को अस्वीकार कर समस्त अच्छे-बुरे कर्मो को भगवतार्पण कर मन को अच्छे सत्कार्यो में लगाकर जीवन को सुखमय बनाना चाहिये।
जीवमात्र जब कर्म करता है। तो हर कार्य को करने में उसकी अलग-अलग मानसिकता जुडी रहती है। और उसी मानसिकता के आधार पर एक ही कार्य के अनेक कर्मफलो का निर्धारण स्थति व योनि के अनुसार होता है। जैसे कि एक मनुष्य घर से बाहर निकलता है। और उसके पैरो तले आकर एक चींटी की मृत्यू हो जाती है। अब अगर उस मनुष्य ने जानबूझकर उस चींटी पर पैर रख्खा तो उसे उसकी हत्या के रूप में कर्मफल का भोग करना पडेगा और नर्कादिक की यात्रा संभव है। वहीं अगर चींटी अनजाने में पैरो तले आकर मृत्यू को प्राप्त होती है। तब भी उसे हत्या के कर्मफल का भोग तो करना ही पडेगा पर वह यहीं पृथ्वी लोकपर ही कर्मफला:भोग के रूप में संभव है। इसी तरह चींटी की मृत्यू के अन्य फला:भोग भी निर्धारित होते है। जो परिस्थिति अनुसार होते है। जैसे वही चीटी अगर मंदिर या सत्कार्य के लिए जाते हुए कुचली जाती है। तो अलग व गृहकार्य के लिए जाते हुए पैरो से कुचली जाती है। तो अलग फला:भोग अत:मनुष्य की भावना परिस्थिति व ज्ञान या अज्ञानता पर ही स्वर्ग-नर्क या प्रथ्वीलोक पर प्रारब्ध के रूप में फल:भोग मिलते है। जिन्है जीवमात्र को कर्मानुसार भोगना पडता है। ये विवेचना सिद्ध करती है। कि स्वर्ग-नर्क का अस्तित्व है। एवं पृथ्वीलोक अथवा स्वर्ग-नर्क के कर्मभोग का निर्धारण जीवमात्र द्वारा स्वयं ही किया जाता है। अत: व्यक्ति को स्वर्गादिक या प्रथ्वी लोक पर ही अच्छी योनी व सुखमय वातावरण पाने के लिए मन को वश मे कर सु:कर्म करने चाहिये। श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार.. यथा-
यस्त्विन्द्रियाणी मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन।
कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते।।
हे अर्जुन ! जो पुरुष मन से इन्द्रियों को वश में करके अनासक्त हुआ समस्त इन्द्रियों द्वारा कर्मयोग का आचरण करता है, वही श्रेष्ठ है।
व्यक्तिमात्र को मन:शांती लाने एवं जन्म-मरणादिक के चक्र से निकलने के लिए पूर्ण रूप से भगवद् समर्पण स्वीकार्य करना चाहिये यथा-
ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्तवा करोति यः।
लिप्यते न स पापेन पद्मपत्र मिवाम्भसा।।
जो पुरुष सब कर्मों को परमात्मा में अर्पण करके और आसक्ति को त्यागकर कर्म करता है, वह पुरुष जल से कमल के पत्ते की भाँति पाप से लिप्त नहीं होता ।
ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि संन्यस्य मत्पराः।
अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते।।
तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात्।
भवामि नचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम्।।
जो मेरे परायण रहने वाले भक्तजन सम्पूर्ण कर्मों को मुझे अर्पण करके मुझ सगुणरूप परमेश्वर को ही अनन्य भक्तियोग से निरन्तर चिन्तन करते हुए भजते हैं। हे अर्जुन ! उन मुझमें चित्त लगाने वाले प्रेमी भक्तों का मैं शीघ्र ही मृत्युरूप संसार-समुद्र से उद्धार करने वाला होता हूँ।
※❖ॐ∥▩∥श्री∥ஜ ۩۞۩ ஜ∥श्री∥▩∥ॐ❖※
🌹۞☀∥ राधेकृष्ण: शरणम् ∥☀۞🌹
※❖ॐ∥▩∥श्री∥ஜ ۩۞۩ ஜ∥श्री∥▩∥ॐ❖※
🌹: कृष्णा : श्री राधा प्रेमी : 🌹
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🌹एक बार प्रेम से बोलिए ...
🌹प्यारी श्री " राधे राधे "🌹💐💐
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प्रिय भगवत्जन ...
शास्त्र कहते हैं कि पुरुष क्रतुमय है। अतएव-
‘यत्क्रतुर्भवति तत्कर्म कुरुते, यत्कर्म कुरुते तदभिनिष्पद्यते।’
पुरुष जैसा संकल्प करने लगता है वैसा ही कर्म करता है, जैसा कर्म करता है, वैसा ही बन जाता है। जिन बातों का प्राणी बार-बार विचार करता है, धीरे-धीरे वैसी ही इच्छा हो जाती हे, इच्छानुसारी कर्म और कर्मानुसारिणी गति होती है। अतः स्पष्ट है कि अच्छे कर्म करने के लिये अच्छे विचारों को लाना चाहिये। बुरे कर्मों को त्यागने के पहले बुरे विचारों को त्यागना चाहिए। जो बुरे विचारों का त्याग नहीं करता, वह कोटि-कोटि प्रयत्नों से भी बुरे कर्मों से छुटकारा नहीं पा सकता। और यही अच्छे - बुरे कर्म समय पाकर जीव के प्रारब्ध का निर्माण करते है। जिन्है व्यक्ति जीवन पर्यंन्त भोगता है। अत: अगर व्यक्ति को कर्मो की अच्छाई या बुराई से निकलना है। तो अपने मन से दु:सह कर्मो की सत्ता को अस्वीकार कर समस्त अच्छे-बुरे कर्मो को भगवतार्पण कर मन को अच्छे सत्कार्यो में लगाकर जीवन को सुखमय बनाना चाहिये।
जीवमात्र जब कर्म करता है। तो हर कार्य को करने में उसकी अलग-अलग मानसिकता जुडी रहती है। और उसी मानसिकता के आधार पर एक ही कार्य के अनेक कर्मफलो का निर्धारण स्थति व योनि के अनुसार होता है। जैसे कि एक मनुष्य घर से बाहर निकलता है। और उसके पैरो तले आकर एक चींटी की मृत्यू हो जाती है। अब अगर उस मनुष्य ने जानबूझकर उस चींटी पर पैर रख्खा तो उसे उसकी हत्या के रूप में कर्मफल का भोग करना पडेगा और नर्कादिक की यात्रा संभव है। वहीं अगर चींटी अनजाने में पैरो तले आकर मृत्यू को प्राप्त होती है। तब भी उसे हत्या के कर्मफल का भोग तो करना ही पडेगा पर वह यहीं पृथ्वी लोकपर ही कर्मफला:भोग के रूप में संभव है। इसी तरह चींटी की मृत्यू के अन्य फला:भोग भी निर्धारित होते है। जो परिस्थिति अनुसार होते है। जैसे वही चीटी अगर मंदिर या सत्कार्य के लिए जाते हुए कुचली जाती है। तो अलग व गृहकार्य के लिए जाते हुए पैरो से कुचली जाती है। तो अलग फला:भोग अत:मनुष्य की भावना परिस्थिति व ज्ञान या अज्ञानता पर ही स्वर्ग-नर्क या प्रथ्वीलोक पर प्रारब्ध के रूप में फल:भोग मिलते है। जिन्है जीवमात्र को कर्मानुसार भोगना पडता है। ये विवेचना सिद्ध करती है। कि स्वर्ग-नर्क का अस्तित्व है। एवं पृथ्वीलोक अथवा स्वर्ग-नर्क के कर्मभोग का निर्धारण जीवमात्र द्वारा स्वयं ही किया जाता है। अत: व्यक्ति को स्वर्गादिक या प्रथ्वी लोक पर ही अच्छी योनी व सुखमय वातावरण पाने के लिए मन को वश मे कर सु:कर्म करने चाहिये। श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार.. यथा-
यस्त्विन्द्रियाणी मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन।
कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते।।
हे अर्जुन ! जो पुरुष मन से इन्द्रियों को वश में करके अनासक्त हुआ समस्त इन्द्रियों द्वारा कर्मयोग का आचरण करता है, वही श्रेष्ठ है।
व्यक्तिमात्र को मन:शांती लाने एवं जन्म-मरणादिक के चक्र से निकलने के लिए पूर्ण रूप से भगवद् समर्पण स्वीकार्य करना चाहिये यथा-
ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्तवा करोति यः।
लिप्यते न स पापेन पद्मपत्र मिवाम्भसा।।
जो पुरुष सब कर्मों को परमात्मा में अर्पण करके और आसक्ति को त्यागकर कर्म करता है, वह पुरुष जल से कमल के पत्ते की भाँति पाप से लिप्त नहीं होता ।
ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि संन्यस्य मत्पराः।
अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते।।
तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात्।
भवामि नचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम्।।
जो मेरे परायण रहने वाले भक्तजन सम्पूर्ण कर्मों को मुझे अर्पण करके मुझ सगुणरूप परमेश्वर को ही अनन्य भक्तियोग से निरन्तर चिन्तन करते हुए भजते हैं। हे अर्जुन ! उन मुझमें चित्त लगाने वाले प्रेमी भक्तों का मैं शीघ्र ही मृत्युरूप संसार-समुद्र से उद्धार करने वाला होता हूँ।
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🌹प्यारी श्री " राधे राधे "🌹💐💐
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