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  🌹🌟 राधे नाम संग हरि बोल 🌟🌹
 ※❖ॐ∥▩∥श्री∥ஜ ۩۞۩ ஜ∥श्री∥▩∥ॐ❖※

 🌹🔱⚜💧भगवतार्पणम्💧⚜🔱🌹

प्रिय भगवत्भक्त जन .....

भौतिक रूप से देखने मे स्थूल जगत् ही सब कुछ है परन्तु हम देखते हैं कि चींटी, चीड़िया, उष्ट्र, हाथी आदिकों के बड़े-बड़े देह या छोटे से छोटे जीवों के सूक्ष्मातिसूक्ष्म शरीर सभी का आधार आत्मतत्व ही है। और सभी अपने सूक्ष्म विचारो पर ही उठते, चलते, फिरते, बैठते हैं, तब यह कहने में कोई भी संकोच नहीं रह जाता है कि ब्रह्मादि स्तम्ब-पर्यन्त सभी प्राणियों की जो भी हलचलें है और उन हलचलों से जो भी कार्यसंपन्न होते हैं, सब सूक्ष्म विचार, मन या वृद्धि के ही कार्य हैं।

सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र, वायु आदिकों की भी हलचल का कारण सूक्ष्म विचार ही हो सकता है। और वह विचार अपने से भी सूक्ष्म चेतनाभास या अखण्ड बोध की अपेक्षा रखता है यहां तक की अचेतनों की प्रवृत्ति भी तभी होती है, जब अचेतन में चेतन अधिष्ठित होता है। और यह सब कुछ विशेषकर जीवों का उत्थान-पतन बहुत कुछ विचारों पर ही निर्धारित रहता है।

शास्त्र कहते हैं कि पुरुष क्रतुमय है। अतएव-

‘यत्क्रतुर्भवति तत्कर्म कुरुते, यत्कर्म कुरुते तदभिनिष्पद्यते।’

पुरुष जैसा संकल्प करने लगता है वैसा ही कर्म करता है, जैसा कर्म करता है, वैसा ही बन जाता है। जिन बातों का प्राणी बार-बार विचार करता है, धीरे-धीरे वैसी ही इच्छा हो जाती हे, इच्छानुसारी कर्म और कर्मानुसारिणी गति होती है। अतः स्पष्ट है कि अच्छे कर्म करने के लिये अच्छे विचारों को लाना चाहिये। बुरे कर्मों को त्यागने के पहले बुरे विचारों को त्यागना चाहिए। जो बुरे विचारों का त्याग नहीं करता, वह कोटि-कोटि प्रयत्नों से भी बुरे कर्मों से छुटकारा नहीं पा सकता। और यही अच्छे - बुरे कर्म समय पाकर जीव के प्रारब्ध का निर्माण करते है। जिन्है व्यक्ति जीवन पर्यंन्त भोगता है। व्यक्ति किसी भी काल में अपने कर्म से मुक्त नही होता! यथा -

न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः।।

निःसंदेह कोई भी मनुष्य किसी काल में क्षणमात्र भी बिना कर्म किये नहीं रहता, क्योंकि सारा मनुष्य समुदाय प्रकृति जनित गुणों द्वारा परवश हुआ कर्म करने के लिए बाध्य किया जाता है।

यहां एक बात याद रखने योग्य है कि जीव या अंगुतक व्यक्ति जो भी भोग रहा है। या उसे जो भी अच्छा - बुरा मिल रहा है। वह सभी प्रारब्धजनित निर्धारित रहता है। और जो कार्य वर्तमान में व्यक्ति के द्वारा स्वयं को "मै" या "स्व:" में स्थित रखकर किया जाता है। वह कर्म है। जो व्यक्ति को मिल रहा होता है। या उसके साथ जो भी अच्छा - बुरा होता है। वह सब उसके पूर्व संचयित कर्मो का फल है। और उसे बदलने का प्राय: व्यक्ति के पास कोई अधिकार नही है। परंतु व्यक्ति के वर्तमान कार्यो को बदलने का या उसे अपनी जीवन शैली को निर्धारित करने का पूर्ण अधिकार व्यक्ति के स्वयं के ऊपर निर्भर है। व्यक्ति को सदैव शास्त्रविहित कार्य करने चाहिये क्योकि -

नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्धयेदकर्मणः।।

तू शास्त्रविहित कर्तव्य कर्म कर, क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है तथा कर्म न करने से तेरा शरीर निर्वाह भी सिद्ध नहीं होगा ।

व्यक्ति द्वारा निस्वार्थ रूप से किये गए कार्य ही सराहनीय है।

यस्त्विन्द्रियाणी मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन।
कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते।।

किन्तु हे  अर्जुन ! जो पुरुष मन से इन्द्रियों को वश में करके अनासक्त हुआ समस्त इन्द्रियों द्वारा कर्मयोग का आचरण करता है, वही श्रेष्ठ है।

ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्तवा करोति यः।
लिप्यते न स पापेन पद्मपत्र मिवाम्भसा।।

जो पुरुष सब कर्मों को परमात्मा में अर्पण करके और आसक्ति को त्यागकर कर्म करता है, वह पुरुष जल से कमल के पत्ते की भाँति पाप से लिप्त नहीं होता ।

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 🌹۞☀∥ राधेकृष्ण: शरणम् ∥☀۞🌹
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