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  🌹🌟 राधे नाम संग हरि बोल 🌟🌹
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🌹🌟श्रेष्ठ कौन शक्ति या त्रिदेव🌟🌹

❄ ब्रह्म का कौन सा रूप या अवतार श्रेष्ठ :

☄ प्रिय भगवत्जन .....

आपके प्रश्नानुसार "त्रिदेव" यानी ब्रह्मा , विष्णू व शिव का जनक कौन है? " त्रिदेव" या "शक्ति" इनमें से कौन ब्राह्मांड का उत्पत्ती करता है?

प्रिय भगवत्जन ... हिंदू धर्म में अनेकों देवी देवताओं का वर्णन व उनके अवतार समय के घटनाक्रमों के उल्लैखो पर आधारित सद्ग्रंथो का बहुताय में संग्रह है। इनमें प्रमुखत: माँ "दुर्गा" त्रिदेव " ब्रह्मा, विष्णु, व शिव " श्री गणेश, "श्रीराम" , "श्रीकृष्ण" व भगवान के दसावतार प्रमुख है। हर सद्ग्रंथ में ग्रंथ के आराध्य देव को ही पूर्ण श्रष्टी का रचैयता व सभी देवों का जनक बताया गया है। इसका क्या कारण है? क्या आप जानते है? हमारे बहुत से भगवत्जन तो इसी दुविधा में अक्सर पड जाते है। कि किसे मानें कौन बडा है। कौन हमारी मनोकामना जल्दी पूर्ण करेगा !

प्रिय जन हमारे सद्ग्रंथों में भगवान के अनेकों रूपों का वर्णन मिलता है। उसका कारण यह है। कि जीवमात्र का मन विचित्रताओं की खान है। वह  किसी एक ही चीज को बार बार उमंग व लगाव से स्वीकार्य नही करता जैसे कि भोजन , परिवेश , या किसी एक ही जगह का बंधन! एक ही चीज के बार बार उपयोग से मन में एक अजीब सी उकताहट होने लगती है। जैसे कि मान लो अगर कपडे एक हीं रंग से बने होते कोई दूसरा रंग ही ना होता तो क्या उन्हें उपयोग करने वाला उतना प्रसन्न होता ? नही ना! इसी वजह से एक ही ब्रह्म शक्ती समयानुसार विभिन्न रूपो में अवतरित हुई और उसी अवतरित रूप से जुडे विभिन्न सद्ग्रंथों मे उसी रूपावतार को श्रेष्ठ बताया गया जिससे कि उस रूपावतार को मानने वाले भक्त का अपने इष्ट के प्रति प्रेम व भक्ति का उत्तरोत्तर विकास हो!
हर जीव अपने पूर्व जीवन की अधिकतर स्मृतियों को भूल जाता है। पर ब्रह्म:शक्ति कभी भी किसी भी घटना से अनभिज्ञ नही रहती आइये इसे थोडा विस्तार से समझे .... "श्रीमद्भगवद्गीता" के अनुसार यथा _

श्रीभगवानुवाच :
बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन |
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप ||

श्रीभगवान् ने कहा – तुम्हारे तथा मेरे अनेकानेक जन्म हो चुके हैं | मुझे तो उन सबका स्मरण है, किन्तु हे परंतप! तुम्हें उनका स्मरण नहीं रह सकता है |

ब्रह्मसंहिता में भी(५.३३) हमें भगवान् के अनेकानेक अवतारों की सूचना प्राप्त होती है | उसमें कहा गया है –

अद्वैतमच्युतमनादिमनन्तरूपमाद्यं पुराणपुरुषं नवयौवेन च |
वेदेषु दुर्लभमदुर्लभमात्मभक्तौ गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ||

“मैं उन आदि पुरुष श्री भगवान् गोविन्द की पूजा करता हूँ जो अद्वैत,अच्युत तथा अनादि हैं | यद्यपि अनन्त रूपों में उनका विस्तार है, किन्तु तो भी वे आद्य, पुरातन तथा नित्य नवयौवन युक्त रहते हैं। श्रीभगवान् के ऐसे सच्चिदानन्दरूप को प्रायः श्रेष्ठ वैदिक विद्वान जानते हैं, किन्तु विशुद्ध अनन्य भक्तों को तो उनके दर्शन नित्य होते रहते हैं |”

ब्रह्मसंहिता में यह भी कहा गया है –
रामादिमुर्तिषु कलानियमेन तिष्ठन् नानावतारकरोद् भुवनेषु किन्तु |
कृष्ण स्वयं समभवत् परमः पुमान् यो गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ||

“मैं उन श्रीभगवान् गोविन्द की पूजा करता हूँ जो राम, नृसिंह आदि अवतारों तथा अंशावतारों में नित्य स्थित रहते हुए भी कृष्ण नाम से विख्यात आदि-पुरुष हैं और जो स्वयं भी अवतरित होते हैं।”

वेदों में भी कहा गया है कि अद्वैत होते हुए भी भगवान् असंख्य रूपों में प्रकट होते हैं | वे उस वैदूर्यमणि के समान हैं जो अपना रंग परिवर्तित करते हुए भी एक ही रहता है | इन सारे रूपों को विशुद्ध निष्काम भक्त ही समझ पाते हैं; केवल वेदों के अध्ययन से उनको नहीं समझा जा सकता (वेदेषु दुर्लभमदुर्लभमात्मभक्तौ)|

शरीर-परिवर्तन के साथ-साथ जीवात्मा सब कुछ भूल जाता है, और उसे पूर्व संचित ज्ञान का स्मरण नहीं रहता ।
भगवान अपने सच्चिदानन्द शरीर को बदलते नहीं। वे अद्वैत हैं जिसका अर्थ है कि उनके शरीर तथा उनकी आत्मा में कोई अन्तर नहीं है। उनसे सम्बंधित हर वस्तु में आत्मस्वरूप से स्थित है। जबकि बद्धजीव अपने शरीर से भिन्न होता है।  चूँकि भगवान् के शरीर और आत्मा अभिन्न हैं, अतः उनकी स्थिति तब भी सामान्य जीव से भिन्न बनी रहती है, जब वे भौतिक स्तर पर अवतार लेते हैं। साधारणजन भगवान् की इस दिव्य प्रकृति से तालमेल नहीं बैठा पाते, जिसकी व्याख्या इस श्लोक में भगवान् स्वयं करते हैं।

अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्र्वरोऽपि सन् |
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया ||

यद्यपि मैं अजन्मा तथा अविनाशी हूँ और यद्यपि मैं समस्त जीवों का स्वामी हूँ, तो भी प्रत्येक युग में मैं अपने आदि दिव्य रूप में प्रकट होता हूँ |

यहां भगवान् ने अपने जन्म की विलक्षणता बतलाई है। वह अजन्मा , अविनाशी जीव मात्र के स्वामी होते हुए भी अपने भक्तों की प्रेम व भक्ती के वश में होकर विभिन्न रूपो में अलग-अलग युगो में अवतार ग्रहण करते है।
 अपने भक्तो के लिए यद्यपि वे सामान्य पुरुष की भाँति प्रकट हो सकते हैं, किन्तु उन्हें विगत अनेकानेक “जन्मों” की पूर्ण स्मृति बनी रहती है, जबकि सामान्य पुरुष को कुछ ही घंटे पूर्व की घटना स्मरण नहीं रहती | यदि कोई पूछे कि एक दिन पूर्व इसी समय तुम क्या कर रहे थे, तो सामान्य व्यक्ति के लिए इसका तत्काल उत्तर दे पाना कठिन होगा। उसे उसको स्मरण करने के लिए अपनी बुद्धि को कुरेदना पड़ेगा कि वह कल इसी समय क्या कर रहा था।

भगवान् का प्राकट्य तथा तिरोधान सामान्य जीव से भिन्न हैं अतः स्पष्ट है कि वे शाश्र्वत हैं, अपनी अन्तरंगा शक्ति के कारण आनन्दस्वरूप हैं और इस भौतिक प्रकृति द्वारा कभी कलुषित नहीं होते | वेदों द्वारा भी पुष्टि की जाती है कि भगवान् अजन्मा होकर भी अनेक रूपों में अवतरित होते रहते हैं, किन्तु तो भी वे शरीर-परिवर्तन नहीं करते | श्रीमद्भागवत में वे अपनी माता के समक्ष नारायण रूप में चार भुजाओं तथा षड्ऐश्र्वर्यो से युक्त होकर प्रकट होते हैं | उनका आद्य शाश्र्वत रूप में प्राकट्य उनकी अहैतुकी कृपा है जो जीवों को प्रदान की जाती है जिससे वे भगवान् के यथारूप में अपना ध्यान केन्द्रित कर सकें न कि निर्विशेषवादियों द्वारा मनोधर्म या कल्पनाओं पर आधारित रूप में | विश्र्वकोश के अनुसार माया या आत्म-माया शब्द भगवान् की अहैतुकी कृपा का सूचक है भगवान् अपने समस्त पूर्व अविर्भाव-तिरोभावों से अवगत रहते हैं, किन्तु सामान्य जीव को जैसे ही नवीन शरीर प्राप्त होता है वह अपने पूर्व शरीर के विषय में सब कुछ भूल जाता है | वे समस्त जीवों के स्वामी हैं, क्योंकि इस धरा पर रहते हुए वे आश्चर्य जनक तथा अतिमानवीय लीलाएँ करते रहते हैं । अतः भगवान् निरन्तर वही परमसत्य रूप हैं और उनके स्वरूप तथा आत्मा में या उनके गुण तथा शरीर में कोई अन्तर नहीं होता ।

साधारण भक्त जनों की इसी अज्ञानता का लाभ लेकर कुछ क्षद्मज्ञानी व क्षद्मसंतजन प्रायः अपने को ईश्र्वर या उनका अवतार घोषित कर जनसमुदाय को भ्रमित करते रहते हैं। परंतु आत्मज्ञान की इस वास्तविकता से वह कोसों दूर रहते है। मनुष्य को ऐसी निरर्थक घोषणाओं से व क्षद्मजनों से दूर रहना चाहिये और ब्रह्म की वास्तविकता को समझना चाहिये! ब्रह्म एक होते हुए भी अनंन्त रूप में है। भक्त को उनके सभी रूपो में समभाव रखकर भ्रमित नहीं होना चाहिए ।


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