🚩🔱 ❄ «ॐ»«ॐ»«ॐ» ❄ 🔱🚩 🌸🌹!:: भगवद्🌹अर्पणम् ::!🌹🌸 ※══❖═══▩ஜ ۩۞۩ ஜ▩═══❖══※ 🌹🌟 राधे नाम संग हरि बोल 🌟🌹 ※❖ॐ∥▩∥श्री∥ஜ ۩۞۩ ஜ∥श्री∥▩∥ॐ❖※ 🔅धर्म की परिभाषा : 💐 प्रिय भगवद्जन..... यतो ऽभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिः स धर्मः। धर्म वह अनुशासित जीवन क्रम है, जिसमें लौकिक उन्नति (अविद्या) तथा आध्यात्मिक परमगति (विद्या) दोनों की प्राप्ति होती है। धर्म का शाब्दिक अर्थ :धर्म एक संस्कृत शब्द है। धर्म का अर्थ बहुत व्यापक है। ध + र् + म = धर्म। ध देवनागरी वर्णमाला 19वां अक्षर और तवर्ग का चौथा व्यंजन है। भाषाविज्ञान की दृष्टि से यह दन्त्य, स्पर्श, घोष तथा महाप्राण ध्वनि है। संस्कृत (धातु) धा + ड विशेषण- धारण करने वाला, पकड़ने वाला होता है। जो धारण करने योग्य है, वही धर्म है। पृथ्वी समस्त प्राणियों को धारण किए हुए है। जैसे हम किसी नियम को, व्रत को धारण करते हैं इत्यादि। इसका मतलब धर्म का अर्थ है कि जो सबको धारण किए हुए है अर्थात धारयति- इति धर्म:!। अर्थात जो सबको संभाले हुए है। सवाल उठता है कि कौन क्या धारण किए हुए हैं? धारण करना सही भी हो सकता है और गलत भी! धारण करने योग्य क्या ह
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🚩🔱 ❄ «ॐ»«ॐ»«ॐ» ❄ 🔱🚩 🌸🌹!:: भगवद्🌹अर्पणम् ::!🌹🌸 ※══❖═══▩ஜ ۩۞۩ ஜ▩═══❖══※ 🌹🌟 राधे नाम संग हरि बोल 🌟🌹 ※❖ॐ∥▩∥श्री∥ஜ ۩۞۩ ஜ∥श्री∥▩∥ॐ❖※ 🌹 "स्व:सत्" का भाव "असत् अहं" का अभाव : एक बहुत सुगम बात है। उसे विचारपूर्वक गहरी रीतिसे समझ लें तो तत्काल तत्त्वमें स्थित हो जायँ। जैसे राजाका राज्यभरसे सम्बन्ध होता है, वैसे ही परमात्मतत्त्वका मात्र वस्तु, व्यक्ति, क्रिया आदिके साथ सम्बन्ध है। राजाका सम्बन्ध तो मान्यतासे है, पर परमात्माका सम्बन्ध वास्तविक है। हम परमात्माको भले ही भूल जायँ, पर उसका सम्बन्ध कभी नहीं छूटता। आप चाहे युग-युगान्तरतक भूले रहें तो भी उसका सम्बन्ध सबसे एक समान है। आपकी स्थिति जाग्रत्, स्वप्न या सुषुप्ति किसी अवस्थामें हो, आप योग्य हों या अयोग्य, विद्वान् हों या अनपढ़, धनी हों या निर्धन, परमात्माका सम्बन्ध सब स्थितियोंमें एक समान है। इसे समझनेके लिये युक्ति बताता हूँ। आप मानते हैं कि बालकपनमें था, अभी मैं हूँ और आगे वृद्धावस्थामें भी मैं रहूँगा। बालकपन, जवानी और वृद्धावस्था—तीनोंका भेद होनेसे ‘था’, ‘हूँ’ और ‘रहूँगा’ ये तीन भेद हुए, पर
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🚩🔱 ❄ «ॐ»«ॐ»«ॐ» ❄ 🔱🚩 🌸🌹!:: भगवद्🌹अर्पणम् ::!🌹🌸 ※══❖═══▩ஜ ۩۞۩ ஜ▩═══❖══※ 🌹🌟 राधे नाम संग हरि बोल 🌟🌹 ※❖ॐ∥▩∥श्री∥ஜ ۩۞۩ ஜ∥श्री∥▩∥ॐ❖※ 🌹भगवद्दर्शनकी उत्कण्ठा : ( गत ब्लॉग से आगे ) भगवत्प्रेमकी अवस्था ही अनोखी होती है। भगवान्का प्रसंग चल रहा है, उनकी मधुर चर्चा चल रही है, उस समय यदि स्वयं भगवान् भी आ जायँ तो प्रसंग चलाता रहे, भंग न होने दे। प्रियतम-चर्चामें एक अद्भुत मिठास होती है, जिसकी चाट लग जानेपर और कुछ सुहाता ही नहीं। प्रीतिकी रीति अनोखी है। प्रभुकी प्रीतिका रस जिसने पा लिया उसे और पाना ही क्या रहा? प्रभु तो केवल प्रेम देखते हैं। स्वयं प्रभुसे बढ़कर प्रभुका प्रेम है। श्रद्धा-भक्तिपूर्वक प्रभुके गुण, प्रभाव, तत्त्व तथा रहस्यसहित ध्यानमें तन्मय होकर प्रभुके प्रेमामृतका पान करना ही प्रभुकी प्रीतिका आस्वादन करना है या हरिके रसमें डूबना है। दो प्रेमियोंमें यदि न बोलनेकी शर्त लग जाय तो अधिक प्रेमवाला ही हारेगा। पति-पत्नीमें यदि न बोलनेका हठ हो जाय तो वही हारेगा जिसमें अधिक स्नेह होगा। इसी प्रकार जब भक्त और भगवान्में होड़ होती है तो भगवान्को ही हारना पड़ता है,
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🚩🔱 ❄ «ॐ»«ॐ»«ॐ» ❄ 🔱🚩 🌸🌹!:: भगवद्🌹अर्पणम् ::!🌹🌸 ※══❖═══▩ஜ ۩۞۩ ஜ▩═══❖══※ 🌹🌟 राधे नाम संग हरि बोल 🌟🌹 ※❖ॐ∥▩∥श्री∥ஜ ۩۞۩ ஜ∥श्री∥▩∥ॐ❖※ 🌹भगवद्दर्शनकी उत्कण्ठा : ( गत ब्लॉग से आगे ) भगवान्के दर्शनमें जो विलम्ब हो रहा है उसका एकमात्र कारण दृढ़ श्रद्धा-विश्वासका अभाव ही है। चाहे जिस प्रकार निश्चय हो जाय, निश्चय हो जानेपर भगवान् न आवे ऐसा हो नहीं सकता। वे अपने भक्तोंको निराश नहीं करते, यही उनका बाना है। यह दूसरी बात है कि बीच-बीचमें हमारे मार्गमें ऐसे विघ्न आ खड़े हों जिनके कारण हमारा मन विचलित-सा हो जाय। परन्तु यदि साधक उस समय सँभलकर प्रभुको दृढ़तापूर्वक पकड़े रहे और विघ्नोंसे प्रह्लादकी भाँति न घबड़ाये तो उसका काम अवश्य ही बन जाता है। प्रभु तो हमारी श्रद्धाको पक्की करनेके लिये ही कभी निष्ठुर और कभी कोमल व्यवहार और व्यवस्था किया करते हैं। वास्तविक श्रद्धा इतनी बलवती होती है कि भगवान्को बाध्य होकर उस श्रद्धाको फलीभूत करनेके लिये प्रकट होना पड़ता है। पारस यदि पारस है और लोहा यदि लोहा है तो स्पर्श होनेपर सोना होगा ही। उसी प्रकार श्रद्धावान्को भगवान्की प्राप्ति होती है
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🚩🔱 ❄ «ॐ»«ॐ»«ॐ» ❄ 🔱🚩 🌸🌹!:: भगवद्🌹अर्पणम् ::!🌹🌸 ※══❖═══▩ஜ ۩۞۩ ஜ▩═══❖══※ 🌹🌟 राधे नाम संग हरि बोल 🌟🌹 ※❖ॐ∥▩∥श्री∥ஜ ۩۞۩ ஜ∥श्री∥▩∥ॐ❖※ 🌹भगवद्दर्शनकी उत्कण्ठा : बहुत-से लोग कहा करते हैं कि यथाशक्ति चेष्टा करनेपर भी भगवान् हमें दर्शन नहीं देते। वे लोग भगवान्को ‘निष्ठुर, कठोर’ आदि शब्दोंसे सम्बोधित किया करते हैं तथा ऐसा मान बैठे है कि उनका हृदय वज्रका-सा है और वे कभी पिघलते ही नहीं। उन्हें क्या पड़ी है कि वे हमारी सुध लें, हमें दर्शन दें और हमें अपनायें – ऐसी ही शिकायत बहुत-से लोगोंकी रहती है। परन्तु बात है बिलकुल उलटी। हमारे ऊपर प्रभुकी अपार दया है। वे देखते रहते हैं कि जरा भी गुंजाइश हो तो मैं प्रकट होऊँ, थोड़ा भी मौका मिले तो भक्तको दर्शन दूँ। साधनाके पथमें वे पद-पदपर हमारी सहायता करते रहते हैं। लोकमें भी यह देखा जाता है कि जहाँ विशेष लगाव होता है, जिस पुरुषका हमारे प्रति विशेष आकर्षण होता है उनके पास और सब काम छोड़कर भी हमें जाना पड़ता है। जहाँ नहीं जाना होता वहाँ प्राय: यही मानना चाहिये कि प्रेमकी कमी है, जब हम साधारण मनुष्योंकी भी यह हालत है तब भगवान्, जो प्रे
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🚩🔱 ❄ «ॐ»«ॐ»«ॐ» ❄ 🔱🚩 🌸🌹!:: भगवद्🌹अर्पणम् ::!🌹🌸 ※══❖═══▩ஜ ۩۞۩ ஜ▩═══❖══※ 🌹🌟 राधे नाम संग हरि बोल 🌟🌹 ※❖ॐ∥▩∥श्री∥ஜ ۩۞۩ ஜ∥श्री∥▩∥ॐ❖※ 🌹भौतिक भोग एवं दैनिक क्रियाकलाप में बंधा हुआ मन भगवद् ध्यानसाधना में केसे प्रवत्त हो ? ( गत ब्लॉग से आगे ) 💐 प्रिय भगवद्जन ..... ध्यानयोगाभ्यास में समाधि की सर्वोच्च अवस्था भगवद्भावनामृत है। केवल इस ज्ञान से कि भगवान प्रत्येक जन के हृदय में परमात्मा रूप में उपस्थित हैं ध्यानस्थ योगी निर्दोष हो जाता है। वेदों में (गोपालतापनी उपनिषद् १.२१) भगवान् की इस अचिन्त्य शक्ति की पुष्टि इस प्रकार होती है – एकोऽपि सन्बहुधा योऽवभाति– “यद्यपि भगवान् एक हैं, किन्तु वह जितने सारे हृदय हैं उनमें उपस्थित रहते है।” इसी प्रकार स्मृति शास्त्र का कथन है।– एक एव परो विष्णुः सर्वव्यापी न संशयः | ऐश्र्वर्याद् रुपमेकं च सूर्यवत् बहुधेयते || “विष्णु एक हैं फिर भी वे सर्वव्यापी हैं । एक रूप होते हुए भी वे अपनी अचिन्त्य शक्ति से सर्वत्र उपस्थित रहते हैं, जिस प्रकार सूर्य एक ही समय अनेक स्थानों में दिखता है।” अत: ध्यानयोग साधना में सदैव इस बात का स्
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🚩🔱 ❄ «ॐ»«ॐ»«ॐ» ❄ 🔱🚩 🌸🌹!:: भगवद्🌹अर्पणम् ::!🌹🌸 ※══❖═══▩ஜ ۩۞۩ ஜ▩═══❖══※ 🌹🌟 राधे नाम संग हरि बोल 🌟🌹 ※❖ॐ∥▩∥श्री∥ஜ ۩۞۩ ஜ∥श्री∥▩∥ॐ❖※ 🌹भौतिक भोग एवं दैनिक क्रियाकलाप में बंधा हुआ मन भगवद् ध्यानसाधना में कैसे प्रवत्त हो ? 💐 प्रिय भगवद्जन .... आपके प्रश्नानुसार .... 🌹हमें ध्यान किस प्रकार करना चाहिए, क्योंकि ध्यान करते समय मन में तरह तरह कि बातें आती है, जो ध्यान को भंग कर देती है ? प्रियजन .... योगाभ्यास ( ध्यान ) करने में साधक को मन तथा इन्द्रियों के निग्रह के साथ-साथ अन्य कई समस्याओं का सामना करना पडता है। भौतिक जगत् में साधना में तत्पर साधक जीवात्मा मन तथा इन्द्रियों के द्वारा सबसे ज्यादा प्रभावित होता है। वास्तव में शुद्ध जीवात्मा इस भौतिक संसार में इसीलिए फँसा हुआ है क्योंकि मन मिथ्या अहंकार में लगकर प्रकृति के प्रभाव में होते हुए भी प्रकृति के ऊपर प्रभुत्व जताना चाहता है। जो कि असाध्य है। जीव को मन का निग्रह इस प्रकार करना चाहिए कि वह प्रकृति की तड़क-भड़क एवं भोग-विलास से आप्लावित छटा को क्षणिक एवं अस्थिर जान आकृष्ट न हो और इस तरह बद्ध जीवात्मा स्व